१६०. स्वर्गीय सर जॉन रॉबिन्सन[१]
लन्दनसे प्राप्त एक समुद्री तारमें बताया गया है कि स्वर्गीय सर जॉन राबिन्सन के स्मारक के लिए चन्दा इकट्ठा करने के उद्देश्यसे इस उपनिवेशके समान लन्दनमें भी एक समिति बनाई गई है। यह उचित ही हुआ है। भले इसका कारण सिर्फ यही क्यों न हो कि वे उत्तरदायी शासनमें उपनिवेशके पहले प्रधानमन्त्री थे और उपनिवेशको जिम्मेदार हुकूमत दिलानेका प्रयत्न करनेवालोंमें प्रमुख थे। परन्तु लोक-कल्याणके प्रति उनकी निष्ठा तथा आत्मत्यागके कारण उन्हें जनताके सम्मानका इससे कहीं ज्यादा हक है। स्वर्गीय सर जॉन बिलकुल अपने प्रयत्नोंसे बड़े हुए थे। उन्होंने पत्रकार के रूपमें जो काम किया उसे प्रत्येक व्यक्ति अच्छी तरह जानता है और शिक्षाशास्त्रीको हैसियतसे भी वे दक्षिण आफ्रिकामें शायद किसीसे दोयम नहीं थे। उनके लिए पत्रकारिता रुपये-आने-पैसेकी चीज नहीं थी; वे उसका उपयोग लोकमतको शिक्षित करने के साधनके रूपमें करते थे और उसके द्वारा समाजको हितकर बल प्रदान करते थे। असल में वे अपनी प्रतिभाका उपयोग बुद्धि-विलासके लिए नहीं, वरन् देश हित के लिए करते थे। सार्वजनिक वक्ताके रूपमें भी वक्तृत्व कलामें उनका स्थान शायद स्वर्गीय श्री एस्कम्बके ही बाद था, यद्यपि शैली शायद उनकी ही अधिक सुसंस्कृत थी। हमें आशा है कि इस दिवं- गत राजनयिककी स्मृतिको चिरस्थायी बनानेके कार्य में भारतीय समाज अपना योग प्रदान करेगा। उन्हें एक विशेष दृष्टिकोणसे भी भारतीयोंका ध्यान आकर्षित करनेका हक है; और यहाँ हम कृतज्ञतापूर्वक उस अवसरका स्मरण कर सकते हैं, जब स्वर्गीय सर जॉनने, बीमार होनेके कारण बहुत असुविधा होनेपर भी, उस सभाकी अध्यक्षता करना मंजूर किया था जो भार-तीयोंने लेडीस्मिथ, मेफेकिंग और किम्बर्लेकी मुक्तिकी खुशी मनाने के लिए आयोजित की थी। उन्होंने उस समय जो भाषण दिया था वह प्रोत्साहनसे पूर्ण था और युद्ध-कालमें भारतीयोंने जो काम किया था उसको उसमें उदारतापूर्वक मान्यता दी गई थी। इससे उनकी विशाल-हृदयता और सहानुभूतिका परिचय मिलता था और साथ ही यह भी प्रकट होता था कि कमसे कम वे तो मौजूदा द्वेषभावसे अछूते थे।
इंडियन ओपिनियन, २८-५-१९०४ ગાંધી
- ↑ देखिए "स्वर्गीय सर जॉन रॉबिन्सन”, १२-११-१९०३।