१६२. प्रिटोरिया नगर-परिषद और सरकार
मालूम होता है, सरकार और प्रिटोरिया नगर परिषद सभी महत्त्वपूर्ण विषयोंपर असहमत होनेमें प्रवीण हैं; और हर मामलेमें परिषद ही बुरी तरह गलतीपर होती है। सबसे ताजा उदाहरण उसके अपने संविधानके सम्बन्धमें ही है। परिषद करदाताओंकी अधिक सेवा करने में तबतक असमर्थ है जबतक कि वह नगर-निगमोंकी व्यवस्थासे सम्बन्धित १९०३ के ५८ वें अध्या- देशको माननेके लिए तैयार नहीं हो जाती। परन्तु परिषद ऐसा करनेके लिए, परिषद सदस्य श्री फेन बोष्टनके शब्दों में, तबतक रजामन्द नहीं है जबतक कि "उसको रंगदार लोगोंको पैदल-पटरियोंपर चलनेसे रोकनेका अधिकार न मिल जाये।" और ऐसा कोई अधिकार उक्त अध्यादेशमें रखा नहीं गया है। इसलिए सरकारने परिषदको सूचित कर दिया है कि वह या तो अध्यादेशको मानने का निश्चय कर ले, या बिलकुल न माननेका, क्योंकि मामला कई महीनोंसे घिसट रहा है। उसने परिषदको बताया है कि,
जबतक वह अध्यादेशको नहीं मानती तबतक ट्रामगाड़ियाँ नहीं चला सकती, आग बुझानेके दस्तेपर या अन्य अनेक आवश्यक कामोंपर रुपया खर्च नहीं कर सकती। विशेष रूपसे वह सरकारके अतिरिक्त अन्य लोगोंसे रुपया उधार नहीं ले सकती, और सरकार उसे कर्ज देनेकी स्थितिमें है नहीं।
सरकारकी इस सूचनापर परिषदने रोष प्रकट किया है और यह प्रस्ताव स्वीकार करके इस मामलेको फिर ताकमें रख दिया कि "पैदल-पटरियोंसे सम्बन्धित उपनियमोंके स्वीकार हो जाने के बाद परिषद १९०३ के ५८ वें अध्यादेशको माननेके लिए तैयार हो जायेगी।" यह परिषदकी दी हुई एक चुनौती है——चुनौतीसे जरा भी कम नहीं। यदि विरोधी पक्ष ट्रान्सवालकी राजधानीकी नगर-परिषद न होता तो यह कारवाई बहुत ही लड़कपन-भरी समझी जाती। एक ओर है परिषदके कानूनी अस्तित्वका प्रश्न और, स्थानीय सरकारके सहायक उपनिवेश-सचिवके कथनानुसार, कर-दाताओंको हजारों पौंड सालका घाटा; दूसरी ओर है रंगदार लोगोंको पैदल पटरियोंपर चलने से वंचित करनेका प्रश्न। एक मामूली कामकाजी निगम (कारपोरेशन) तो, किसी भी हालत में, सबसे पहले अध्यादेशके अनुसार विपुल अधिकार प्राप्त कर लेता और फिर, यदि आवश्यक समझा जाता तो, अपने पटरी-सम्बन्धी उपनियमोंको बनानेका आग्रह आरम्भ करता। लेकिन प्रिटोरिया नगर परिषदने क्रम ही उलट दिया है और उस जिद्दी बालककी तरह, जो टबमें बैठकर मचल जाता है, वह तबतक प्रसन्न नहीं होगी जबतक कि उसे रंगदार लोगोंको पटरियोंपर चलने से रोकनेका अधिकार न मिल जाये। सरकार और परिषद के बीचमें इस संघर्षकी प्रगतिको हम दिलचस्पी के साथ देखेंगे।
इंडियन ओपिनियन, ४-६-१९०४