बता सकते हैं, जिससे भारतीयोंका थोड़ा भी सम्बन्ध हो? उदाहरणके लिए, मोतीझराको ही लीजिए, जो डॉक्टर टर्नरके मतानुसार प्लेगसे कहीं अधिक घातक और संक्रामक है। क्या यह सही नहीं है कि भारतीय इस बीमारीसे खास तौरसे मुक्त हैं और इसकी छूत और मृत्युऍ अधिकतर यूरोपीयोंतक ही सीमित हैं? क्या इसीलिए माननीय सदस्य यूरोपसे लोगोंका यहाँ प्रवास बन्द कर देंगे? परन्तु ऐसे आदमीसे, जो शंका-समाधान चाहता ही न हो, वादविवाद करना बेकार है और यदि हमने भारतीय प्रश्नपर श्री लवडेके विचारोंकी चर्चा करनेका कष्ट किया है तो केवल इसीलिए कि हम चिन्तित हैं, उनका भाषण पढ़नेवाले लोग उस सबसे भ्रमित न हो जायें जो उन्होंने आर्थिक शोषण और प्लेगके सम्बन्धमें कहा है।
इंडियन ओपिनियन, ४-६-१९०४
१६४. फोक्सरस्ट और ब्रिटिश भारतीय
भारतीय परवानोंसे सम्बन्धित परीक्षात्मक मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालयने जो फैसला दिया है उससे फोक्सरस्ट के गोरे लोग बहुत ज्यादा उत्तेजित हैं। हमें यह बताया गया है कि उन्होंने पिछली २७ मईको ऐबनर्थी हॉलमें एक सभा की थी; यह सभा बेहद सफल रही; सभा भवन खचाखच भरा था।” उन्होंने सभामें कई प्रस्ताव पास किये, जो बड़े उग्र थे। उनमें से एक प्रस्ताव द्वारा “सारे देशसे अपील की गई है कि वह जनमतकी माँग करे जिससे लोगोंको इस देशमें भारतीय व्यापारकी शुरुआत और स्थिरताके विरोधका मौका मिले।" और फोक्सरस्टके लोगोंसे कहा गया कि वे भारतीय व्यापारको प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कोई प्रोत्साहन न दें। इन सब बातोंसे हमारा कोई झगड़ा नहीं; यह कार्रवाई बिलकुल वैधानिक है और अगर आम बहिष्कार किया जाये तो भारतीय उसकी शिकायत नहीं कर सकते। मगर यह आन्दोलन बिलकुल मिथ्या मालूम होता है, क्योंकि आन्दोलनकारियोंको लोगोंसे इस कार्यक्रमपर अमल करानेके अपने सामर्थ्यपर बिलकुल विश्वास नहीं है। कारण यह है कि, एक ही साँसमें जहाँ वे पूरे बहिष्कारका प्रस्ताव करते हैं वहीं सरकारसे यह भी कहते हैं कि वह भारतीयोंसे वह अधिकार छीन लेनेके लिए कानून बनाये, जो सर्वोच्च न्यायालयके निर्णयके अनुसार उन्हें इस देशके कानूनकी रूसे प्राप्त है। नगर-निकायके सभापति श्री फिशरने सुझाव दिया कि "जबतक कानून न बने तबतक उन्हें, सीधे या टेढ़े, अगले कुछ महीने निकालने ही चाहिए।" हम नहीं जानते कि इस वाक्यांशका क्या अर्थ है; परन्तु हम बड़े आदरपूर्वक इतना कह सकते हैं कि अगर इसका मतलब वैधानिक उपायोंका परित्याग है तो यह श्री फिशर जैसे जिम्मेदार पदपर आसीन सज्जनके अयोग्य है। और हम आशा करते हैं कि ट्रान्सवालके भारतीयोंकी स्थिति जिन अयोग्य कठिनाइयोंसे घिरी हुई है, सरकार उनपर ध्यान देगी।
इंडियन ओपिनियन, ४-६-१९०४