१६५. जोहानिसबर्ग नगर परिषद और ब्रिटिश भारतीय
जोहानिसबर्ग नगर परिषदने सूचना दी है कि वह विधान परिषद में एक गैरसरकारी विधेयक पेश करना चाहती है। इस विधेयकमें अन्य बातोंके साथ-साथ परिषद के लिए ये अधिकार माँगे जायेंगे:
वह नगरपालिकाकी हदके बाहर वतनी और रंगदार लोगोंके लिए बस्तियाँ और एशियाइयोंके लिए बाजार कायम कर सके और इन बस्तियों या बाजारों में अपने बनाये उपनियम लागू कर सके। और वतनी, एशियाई या रंगदार लोगों के रहने के लिए किसी भी बस्ती या बाजार में मकानात बना सके।
इससे स्पष्ट मालूम होता है कि नगर परिषद फिलहाल उस अधिग्रहण अध्यादेशकी शर्तोंको पूरा करने का कोई इरादा नहीं रखती, जिसके अनुसार अधिगृहीत क्षेत्र से बेदखल किये हुए लोगों को उसके पड़ोस में ही जगह देना उसका फर्ज है। जो सोलह सौ भारतीय वस्ती से हटाकर क्लिपस्प्रूट भेजे गये थे उनको अभीतक उचित घर नहीं मिले हैं। उनमें से कुछ अभीतक क्लिपस्प्रूट में तम्बुओं में ही रहते हैं और मजबूरीकी बेकारीसे सन्तोष करते हैं। जिन्हें शहरमें वापस आनेकी इजाजत दी गई है उन्हें जोहानिसबर्ग में रहनेके अधिकारके बदले भारी किराया चुकाना पड़ता है और वह भी सिर्फ इसलिए कि नगर परिषद अपना कानूनी फर्ज अदा नहीं कर सकी है। यह विचार तो है ही, परन्तु इसके अलावा भी, यदि विधान परिषद नगर परिषदको उपर्युक्त सत्ता दे देगी तो उससे ब्रिटिश भारतीयों का मामला बड़ा गम्भीर हो जायेगा और यह भारतीयोंके खिलाफ एक ऐसा कदम होगा जो पुराने गणतन्त्री कानूनसे बहुत आगे बढ़ जायेगा। क्योंकि मौजूदा हालतोंमें तो सफाई सम्बन्धी मामलोंके सिवा भारतीय बाजारों या बस्तियोंपर नगर परिषदका कुछ भी निय-न्त्रण नहीं है। इन स्थानोंको निश्चित करनेका अधिकार सरकार और केवल सरकारको ही प्राप्त है। और कमसे कम उस सीमित इलाकेमें लोगोंको स्थायी सम्पत्ति रखने और अपने खुदके घर बनानेका अधिकार है। अगर नगर परिषदके इरादे पूरे हो जाते हैं तो भारतीय भी उसी स्तरपर आ जायेंगे जिसपर वतनी लोग हैं और पूरी तरह नगर परिषदकी दयापर निर्भर हो जायेंगे। वे निरे किरायेदार होंगे जिन्हें हटाने के लिए सूचना देनेकी भी जरूरत न होगी और लगातार हटाये जा सकेंगे। फिर इन बस्तियों में जमीनकी मिल्कियत खत्म हो जायेगी। ऐसी स्थितिकी कल्पना भी भयंकर है। और सत्य यह है कि स्थानीय सरकार कमजोर पक्षकी रक्षा करनेमें असमर्थ सिद्ध हुई है। यदि यह बात न होती तो हम कभी यह विश्वास न करते कि नगर परिषद ब्रिटिश भारतीयोंके सम्बन्ध में जो अधिकार लेना चाहती है वे उसे मिल भी सकते हैं। हम आशा ही कर सकते हैं कि परिषद के सदस्य लड़ाईसे पहलेके दिनोंको और अपने उन वचनोंको याद रखेंगे जो उन्होंने तब विदेशी (एटलॉडर) होने की अवस्था में ब्रिटिश भार तीयोंको दिये थे और ईमानदार व्यक्ति के रूपमें उन्हें पूरा करके अपने कर्तव्यका पालन करेंगे।
इंडियन ओपिनियन, ११-६-१९०४