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१६७. ईस्ट लन्दनकी नकल

शुभाशा अन्तरीप (केप ऑफ गुड होप) की संसदमें स्वीकृत कानूनोंको, जो पिछली ३१ मईके गज़टमें प्रकाशित हुए हैं, सरसरी नजरसे पढ़नेपर हमें मालूम होता है कि यूटीनेज नगरपालिका और उसकी व्यवस्थाके नियामक कानूनोंके संशोधन, एकीकरण और परिवर्धन के लिए बनाये गये कानूनको धारा १२५ द्वारा नगर परिषदको कुछ अधिकार दिये गये हैं। इनमें इन बातोंके सम्बन्ध में उपनियम बनानेकी सत्ता भी शामिल है:

नगरपालिकाके कुछ हिस्सोंको वतनी और एशियाई लोगोंकी रिहाइशके लिए बस्तियोंके रूपमें निर्धारित और पृथक् करना और समय-समयपर उनमें परिवर्तन करना और उनको उठाना; वतनी और एशियाई लोग इन बस्तियोंमें जिन शर्तोंपर रहें और अपने निवास और अपने घोड़ों, मवेशियों, बैलों अथवा भेड़-बकरियोंके सम्बन्ध में जो फीस, किराया और झोंपड़ी कर दें उसका नियमन करना और शामिलात जमीनको पशुओंके लिए काममें लानेका नियमन या निषेध करना। इन बस्तियोंकी हृदमें दुकानों, व्यापारिक स्थानों और व्यापारका नियमन करना, उनकी इजाजत देना या मनाही करना। जिन सीमाओंके भीतर एशियाई और वतनी लोगोंका रहना जायज नहीं होगा उन्हें निश्चित करना और समय-समयपर बदलना।

ये पाबन्दियाँ ऐसे “किसी वतनी या एशियाईपर लागू नहीं होंगी जो नगरपालिकाकी सीमाके भीतर अचल सम्पत्तिका पंजीकृत मालिक या काबिज होगा और जिसकी सम्पत्तिका नगर-पालिका सम्बन्धी कार्योंकी दृष्टिसे निर्धारित मूल्य ७५ पौंडसे कम नहीं होगा।

ये अधिकार बहुत कुछ उसी ढंगके हैं जो ईस्ट लन्दनकी नगरपालिकाको प्राप्त हैं। मालूम होता है कि केपके ब्रिटिश भारतीयोंका ध्यान इनकी तरफ नहीं गया और हमें भय है कि इसी-लिए समयपर इनका विरोध नहीं किया गया। इस प्रकारकी उपेक्षापर आश्चर्य करनेकी भी जरूरत नहीं है, क्योंकि एक व्यवसायी समाजसे सरकारी गजटोंको पढ़नेकी अपेक्षा नहीं की जा सकती। और केप संसद में इस कानूनको पास करने की समस्त कार्रवाई किसी महत्त्वपूर्ण स्थानीय अखबारमें प्रकाशित भी हुई हो—इसकी जानकारी हमें नहीं है। लेकिन हम उस सरकारके बारेमें क्या कहें जो नगरपालिकाको इतनी दूरगामी सत्ता देती है। और उस उपनिवेश-कार्यालयको भी क्या कहें जो सम्राटको ऐसे कानूनपर स्वीकृति देनेकी सलाह देता है, क्योंकि वर्ग-सम्बन्धी कानून होनेसे, देशका कानून घोषित करनेके पूर्व इसपर उनकी मंजूरी जरूरी है। हम ईस्ट लंदनके इसी तरहके कानूनकी चर्चा करते समय इतना अधिक कह चुके हैं कि यूटीनेज नगरपालिकामें उसको लागू करने पर कोई टीका-टिप्पणी करना आवश्यक नहीं समझते। परन्तु हम आशा करते हैं कि हमारे कथनकी ओर लन्दन और भारत दोनोंमें ब्रिटिश भारतीयोंके हित-षियोंका ध्यान आकर्षित होगा और कुछ राहत दी जायेगी।

हम यह भी देखते हैं कि चीनी अध्यादेश विशेष स्वीकृति के लिए सुरक्षित रखा गया है। हम नहीं जानते कि यह विधेयक भी इसी तरह क्यों नहीं सुरक्षित रखना चाहिए था, विशेषतः जब यह सभी एशियाइयों पर लागू होता है, चाहे वे ब्रिटिश प्रजाजन हों अथवा न हों। क्या इसका कारण यह है कि हमने जिन धाराओंका उल्लेख किया है उनकी तरफ गवर्नर और उपनिवेश-