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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/२५७

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भारतीय दुभाषिये

कार्यालय दोनोंका ध्यान नहीं गया? और अगर ऐसी बात है तो इससे सिद्ध होता है कि शासन-सम्बन्धी अधिकारपत्र में किसी ऐसे अधिकारकी जरूरत है जिससे सब प्रकारके वर्ग-सम्बन्धी कानून तबतक अवैध माने जायें जबतक कि उनका एक अलग कानूनमें समावेश न हो जाये और उस कानूनका सम्बन्ध केवल ऐसे भेदभावपूर्ण कानूनोंसे ही हो।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ११-६-१९०४

१६८. भारतीय दुभाषिये

श्री हिस्लॉपने उपनिवेश सचिवसे पूछा कि मुझे बताया गया है कि भारतीय दुभाषिये सन्तोषजनक नहीं हैं, इसलिए क्या उन्हें हटा कर उनके स्थानपर यूरोपीय दुभाषिये न रखे जायेंगे? उपनिवेश सचिवने माननीय सदस्यके विचारसे सहमति प्रकट की, परन्तु कहा कि यूरोपीय दुभाषिये मिलने में कठिनाइयाँ हैं। और यह भी कहा कि एक भारतीय दुभाषिया उमगेनीकी अदालतसे हटा दिया गया है, क्योंकि वहाँ एक यूरोपीय मिल गया था।

इस घटना से एक शिक्षा मिलती है। भारतीय दुभाषिये सिर्फ इसीलिए बरदाश्त किये जाते हैं। कि उपनिवेशमें ऐसे यूरोपीय नहीं मिलते जिन्हें भारतीय भाषाओंका थोड़ा-सा भी ज्ञान हो। यदि उपनिवेशभरके भारतीय दुभाषिये इस तथ्यको ध्यानमें रखेंगे तो अच्छा होगा। अगर अ-भारतीय मिल सकते तो सरकार भारतीयोंको तुरन्त बर्खास्त करके उनके स्थानपर अ-भारतीय रखने में बिलकुल न हिचकी होती। परन्तु हम अत्यन्त परिश्रमी सार्वजनिक सेवकोंपर लगाये गये श्री हिस्लॉपके इस आरोपके विरुद्ध आपत्ति प्रकट किये बिना नहीं रह सकते कि वे सन्तोषजनक नहीं हैं। इसके विपरीत हमारी यह बहुत इच्छा है कि माननीय सदस्य हमें अपनी इस जानकारीका सूत्र बतायें। जिन लोगोंको उन्होंने बदनाम किया है उनके साथ न्याय तभी होगा। हमें यह कहने में कोई झिझक नहीं कि अगर भारतीय दुभाषिये सन्तोषजनक नहीं हैं तो यह बदनामी सरकारको जल्दीसे-जल्दी दूर कर देनी चाहिए। दूसरी तरफ, अगर वे योग्य, परिश्रमी और ईमान-दार हैं तो यह सत्य स्वीकार किया जाना चाहिए और उनपर जो आरोप लगाया गया है उससे वे मुक्त कर दिये जाने चाहिए। सही बात तो यह है कि हमने बहुत-से भारतीय दुभाषियोंके प्रमाणपत्र देखे हैं; वे अपने अफसरोंके लिए नितान्त अपरिहार्य बन गये हैं। उन्होंने सिर्फ अपने ही कामसे पूर्ण सन्तोष प्रदान नहीं किया है, बल्कि मुंशीगीरीका और दूसरा काम भी सँभाला है, जिसे करनेके लिए वे किसी भी तरह बाध्य नहीं हैं। श्री हिस्लॉपको यह मालूम नहीं है कि भारतीय दुभाषियोंको एक भारतीय भाषामें नहीं, बल्कि आम तौरपर तीन भाषाओंमें दुभाषियेका काम करना पड़ता है। इस तरह वे बहुत अधिक दिक्कतमें काम करते हैं। और यह सचाई सभी जानते हैं कि अगर आप प्रथम कोटिके दुभाषिये चाहते हैं तो आप एक ही व्यक्तिमें चार भाषाओंका ज्ञान संयुक्त नहीं कर सकते। दुभाषियोंको बहुत ही कम वेतन दिया जाता है; यह बदनामी भी आम है। इसलिए कमसे कम इतना तो कहना ही पड़ेगा कि श्री हिस्लॉप उनके विरुद्ध यह आरोप न लगाते, बल्कि केवल अपने पक्षके हितोंका समर्थन करके सन्तोष कर लेते, जिसके विरुद्ध हमें कुछ भी कहना नहीं था, तो यह शोभाकी बात हुई होती।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ११-६-१९०४