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ट्रान्सवालकी पैदल पटरियाँ


सहायक उपनिवेश सचिव इसके उत्तरमें कहते हैं:

‘नगर-निगम अध्यादेश जोहानिसबर्ग नगर-परिषदपर लागू नहीं होता, अतः वह परिषद रंगदार लोगों द्वारा पैदल-पटरियोंके उपयोग-सम्बन्धी उपनियमको लागू कर सकती है। फिर, वह परिषद जिस घोषणाके अनुसार बनाई गई है उसकी रूसे उक्त उपनियम पुराने नगर-नियमोंके अन्तर्गत आ जाता है। मुझे अफसोस है कि आपने जो उपनियम भेजा है उसकी मंजूरीकी सिफारिश में नहीं कर सकता, क्योंकि बॉक्सबर्ग परिषदको उसे लागू करनेकी अनुमति देनेके लिए कानूनको बदलना जरूरी होगा।’

इस प्रकार यह विदित हो जायेगा कि जो अधिकार जोहानिसबर्गको प्राप्त हैं उनके उपयोगके लाभसे दूसरे सब नगर वंचित रखे जानेवाले हैं, सिर्फ इसलिए कि उस नगरमें अब भी एक पुराना नगर-नियम मौजूद है और वह अभीतक वापस नहीं लिया गया है। मेरी परिषद जोर दे रही है कि स्थानीय सरकारके सहायक उपनिवेश सचिव इस व्यवस्थाकी जरूरतपर तुरन्त और गम्भीर रूपमें ध्यान दें और अगर इस बातपर आपकी परिषदका समर्थन प्राप्त हो जाये तो हमारे उद्देश्यकी पूर्तिका सबसे अच्छा उपाय यह होगा कि आपकी परिषद भी प्रस्ताव स्वीकार करके इसी तरहका आवेदनपत्र भेजे। मैं इस बारेमें सहयोगके लिए आपको पेशगी धन्यवाद देता हूँ।

एक हदतक बॉक्सबर्ग-परिषदसे सहानुभूति प्रकट न करना कठिन है। ये लोग अपनी पैदलपटरियोंपर किसी भी रंगदार आदमीको चलता देखना नहीं चाहते। जोहानिसबर्ग में तमाम रंग-दार लोगोंको उन्हें इस्तेमाल करनेसे रोकनेका अधिकार नगर-परिषदको प्राप्त है; तब दूसरी नगर-परिषदों को भी जोहानिसबर्ग-परिषदके समान आधारपर क्यों न माना जाये। यह स्थिति काफी तर्कसंगत मालूम होती है। जो कुछ हुआ है, यह है: अपना निजी संविधान प्राप्त हो जानेसे, जोहानिसबर्गके लिए आम नगर-निगम अध्यादेशको मानना जरूरी नहीं है। और मसविदा बनाने-वाले व्यक्तिने जोहानिसबर्गके विशेष अध्यादेशमें पुरानी हुकूमतके नगर-नियमोंका ध्यान नहीं रखा। लेकिन पीछे जब नगर-निगम अध्यादेश स्वीकृत हो गया तब "वतनी" शब्दकी उचित व्याख्या करके यह मामला कारगर तरीकेसे निपटाया गया। निश्चय ही सरकारके लिए अधिक साहसपूर्ण और ईमानदारीकी नीति तो यह होती कि वह विधि-संहितामें से नियमका वह हिस्सा ही निकाल देती, जिससे “वतनियों" के अलावा दूसरे रंगदार लोग खामखाह अपमानित होते हैं। परन्तु सही हो या गलत, जब सीधा रास्ता छोड़ा जा चुका है तब ट्रान्सवालकी नगर परिषदोंका, जिन्हें यह कदम अकस्मात् उठाये जानेकी शिकायत है, अब अपने दृष्टिकोणसे इसके खिलाफ आन्दो-लन करना स्वाभाविक है। निःसन्देह यह एक कठिन स्थिति है। इसका एकमात्र माकूल हल यही मालूम होता है कि इस मामले में और नगर परिषदोंकी जैसी स्थिति है वैसी ही स्थितिमें जोहानिस- वर्ग-परिषदको भी रख दिया जाये। तभी पूरा न्याय होगा और तब दूसरी नगर-परिषदोंको अपने प्राप्त अधिकारोंसे सन्तोष करना पड़ेगा। परन्तु यह बात आश्चर्यजनक और कुछ दुःखजनक भी दिखाई देती है कि ट्रान्सवालकी नगर परिषदों सरीखी प्रभावशाली और महत्त्वपूर्ण संस्थाएँ तिलका ताड़ बना दें और ऐसे लोगोंपर, जिन्होंने उनका कुछ नहीं बिगाड़ा है, अनावश्यक अपमानपर अपमान लादनेमें खुशी हासिल करें। ये लोग अगर किसी चीजके हकदार हैं तो अच्छे बरतावके ही; क्योंकि फिलहाल ब्रिटिश भारतीयोंका विचार छोड़ भी दें तो भी यह नहीं भूल जाना चाहिए कि उन लोगोंने ही, जो कलतक डचेतर गोरे कहे जाते थे, और आज नगर-परिषदोंके शरीफ