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गिरमिटिया भारतीयोंमें आत्महत्याएँ

और १९०१ में ३८३। इस लिहाजसे १९०३ में मृत्यु-संख्याकी दर बिलकुल असाधारण तो नहीं थी। इस संख्यासे पेरिसकी संख्या अधिक रही है।

सर मंचरजीके आँकड़े इस अखबारसे[१] लिये गये हैं। और श्री लिटिलटनने सर मंचरजी-पर ऐसी बात आरोपित की है जो हम समझते हैं उन्होंने कभी नहीं कहीं। और फिर उन्होंने उनके आँकड़ोंकी प्रामाणिकतासे इनकार किया है। सर मंचरजीने पूछा था कि क्या गिरमिटिया भारतीयों में आत्महत्याओंकी संख्या प्रति दस लाखमें ७४१ नहीं है। इसमें जरा-सी भूल यह कि सर मंचरजीका आशय ३१ घटनाओंसे है। जो आत्महत्याओंकी पूरी संख्या है। इसमें से २३ आत्महत्याएँ गिरमिटिया भारतीयोंमें हुईं, परन्तु उनका अनुपात बिलकुल सही है। इसलिए मंचरजीके आँकड़े बिलकुल असन्दिग्ध रहते हैं और जैसा कि डेली न्यूजने बताया है, जो आंकड़े श्री लिटिलटनने खुद पेश किये हैं उनसे भारतीय सदस्यके कथनकी और अधिक पुष्टि होती है। क्योंकि, श्री लिटिलटनके अनुपात के अनुसार, संख्या ७४१ नहीं बल्कि ७६६ है, जब कि स्वतन्त्र भारतीयों में १५७ ही है। ये आँकड़े बहुत जोरदार और साथ ही दर्दनाक भी हैं। और इन भयानक आँकड़ोंके होते हुए भी श्री लिटिलटनने संरक्षककी रिपोर्टमें इस मामलेका जरा-सा जिक्र आनेपर ही अपना सन्तोष प्रकट कर दिया है। हमारी विनीत रायमें उन्होंने ऐसा करके उस मुद्दे को ही भुला दिया जो हमने उठाया है। हम अभीतक मालिकोंके दुर्व्यवहारको आत्महत्याओंका कारण नहीं मानते, जैसा श्री लिटिलटनने खयाल कर लिया है। परन्तु हम यह जरूर कहते हैं कि जिस स्थितिके कारण आत्महत्याओंसे इतनी अधिक मृत्युएँ होती हैं वह ऐसी है जिसकी जाँच होना मालिक और नौकर दोनोंके हितमें जरूरी है। हम जानते हैं कि विचारणीय वर्षकी संख्या असाधारण नहीं है। परन्तु वह साल-दर-साल चली आ रही है और यही स्थिति सबसे बुरी है। इसलिए हम समझते हैं कि पूरी और निष्पक्ष जाँच करनेका समय आ पहुँचा है। सम्भव है कि मालिकोंके वास्तविक दुर्व्यवहारके बजाय उस स्थितिका ही दोष हो जिसमें गिरमिटिया लोग रखे जाते हैं। यह भी हो सकता है कि उन लोगों से जो काम कराया जाता है वह उनके लिए जरूरतसे ज्यादा सख्त हो या जलवायु सम्बन्धी स्थितियाँ ऐसी हों जिनसे वे ऐसे काम करने के लिए बाध्य होते हों, अथवा उन्हें सिर्फ घरकी याद ही सताती हो। कारण कुछ भी हो, यह अत्यावश्यक है कि जनता ठीक-ठीक कारण जाने और इस मामले पर भारतीयों के मनमें जो भारी बेचैनी है उसका भी समाधान हो। इसलिए हमारी समझ में नहीं आता कि जाँचकी उचित माँगमें कदाचित् खर्चके सिवा और क्या आपत्ति हो सकती है। परन्तु हम इस बातका तो बिलकुल विचार ही नहीं करते, क्योंकि हम जानते हैं कि इससे कहीं कम महत्त्व के मामलेमें भारी खर्च करके भी जांचपर जांच मंजूर की जाती हैं। इसलिए हमें विश्वास है कि इस प्रश्नको यों ही नहीं छोड़ दिया जायेगा और योग्य संसद सदस्य सर मंचरजी उपनिवेश-कार्यालयको साफ तौरपर बता देंगे कि प्रस्तावित जाँचका मतलब पहले से ही मालिकों के दुर्व्यवहारका अस्तित्व मान लेना नहीं है और न उसका हेतु मालिकोंपर जरा भी आक्षेप करना है। आवश्यकता इतनी ही है कि सत्यको खोज कर ली जाये और कुछ नहीं।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ३०-७-१९०४
  1. देखिए “गिरमिटिया भारतीय" ४-६-१९०४; गांधीजीने इस लेखकी एक नकल मंचरजी भावनगरीको भी भेजी हो तो असम्भव नहीं।