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१९०. दर-दरके धक्के

जोहानिसबर्ग नगर परिषदकी बैठक वतनी और एशियाई लोगोंके लिए घरोंकी व्यवस्थाके बारेमें हुई थी। उसका विवरण दिलचस्प है जिसे हम अन्य स्तम्भमें छाप रहे हैं। सभीको यह स्मरण होगा कि प्लेगके प्रकोपके दिनोंमें पुरानी भारतीय बस्ती जला दी गई थी और उसके निवासी हटाकर क्लिपस्प्रूट शिविरमें भेज दिये गये थे। परिषद के कुछ सदस्योंकी यह राय थी कि अच्छा पिण्ड छूटा और उन्होंने यह भी सोच लिया था कि शिविर स्थायी बस्ती है। परन्तु उन्होंने पीछे देखा कि पृथक् वासकी अवधि बीतने के बाद शिविर-वासियोंको नगरमें लौटने की इजाजत दे दी गई है, बशर्ते कि वे रैंड प्लेग-समितिको सन्तोषप्रद निवास-स्थान बता सकें। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि इस प्रकार निवास स्थानोंसे वंचित भारतीयोंके पास जमीनका टुकड़ा जैसी कोई चीज नहीं है, जिसपर वे स्थायी रूपसे रह सकें। जो बस्ती जला दी गई है उसके स्थानपर कोई दूसरी अभीतक निश्चित नहीं की गई है और चूंकि उन्हें अचल सम्पत्ति रखनेका अधिकार नहीं है इसलिए वे असमंजसकी स्थितिमें रहनेके लिए लाचार हैं। अब विवरणसे जाहिर है कि नगर परिषद क्या करना चाहती है, यह वह खुद नहीं जानती। वह अभीतक उपयुक्त स्थानके चुनावके सम्बन्धमें जहाँ थी वहाँ ही है और स्थिति यह है कि इस बीचमें किसी भी [क्षण][१] भारतीयोंको दर-दर धक्के खाने पड़ सकते हैं। मलायी बस्ती पहले से ही चिपिच है और उसमें उन्हें अनाप-शनाप किराया देना पड़ता है। उनका व्यापार चौपट हो गया है। उनके पास माल नहीं है, वह जला दिया गया है और उनको उसका कोई मुआवजा नहीं दिया गया है। उनकी हालत सचमुच दयनीय है और उपनिवेश-सचिवने, जो उनके लिए उपयुक्त स्थानकी व्यवस्थापर जोर देनेके लिए कर्त्तव्यबद्ध हैं, अभी अँगुली भी नहीं उठाई है। उधर नगर परिषद तरह-तरह की योजनाओंपर बेकार वादविवाद कर रही है। इस अन्यायका अन्त कब होगा?

नगर परिषद और स्थानीय सरकारके इस उदासीनता-भरे रुखके बिलकुल विपरीत यह समुद्री तार है जो हमारे सम्मानित सहयोगीने अपने स्तम्भों में छापा है। कहते हैं, इसमें श्री लिटिलटनने यह कहा:

हम ट्रान्सवाल-वासियोंपर भारतीय मजदूरोंको देशमें लानेकी इजाजत देनेके लिए दबाव नहीं डाल सकते, परन्तु हम उन्हें समझाने-बुझाने का प्रयत्न कर सकते हैं। पृथक्करणकी नीति अदूरदर्शितापूर्ण और अमानुषिकता-भरी है। परन्तु यदि ट्रान्सवाल ब्रिटिश भारतीयोंके उपनिवेशमें प्रवेशके रास्तेमें कठिनाइयाँ पैदा करनेका निर्णय करता है तो यद्यपि मुझे उस निर्णयसे गहरा दुःख होगा, फिर भी मैं यह खयाल नहीं करता कि जो भारतीय प्रवासी गणराज्यके कानूनके अन्तर्गत वहाँ आये थे उनके मामलेमें वह विरोध कर सकता है, क्योंकि वह कानून बिलकुल भिन्न है। मेरा खयाल है कि सर्वोच्च न्यायालयका निर्णय कायम रखा जाना चाहिए, क्योंकि हमारे लिए अपने राष्ट्रीय गौरव और सम्मान से असंगत स्थिति अपनाना और

  1. यह मूलमें कटा हुआ है।