हैं और यह एक बात ही हममें इस सुधारकी पूर्तिकी अदम्य शक्ति जागृत करनेके लिए काफी समझी जानी चाहिए। हमने जो सुझाव यहाँ दिया है उसपर यदि हमारे नौजवान पाठक गौर करेंगे और उसे अविलम्ब हाथ में लेंगे तो हमें प्रसन्नता होगी।
इंडियन ओपिनियन, १३-८-१९०४
१९५. पीटर्सबर्गको क्या खूब बातें
पीटर्सबर्ग में एक एशियाई-विरोधी सभा की गई थी। इसके बारेमें अन्यत्र हम एक समाचार छाप रहे हैं, जो २९ जुलाईके जूटपान्सबर्ग रिव्यू ऐंड माइनिंग जरनलसे लिया गया है। कहा जाता है कि सभामें दो सौसे तीन सौतक आदमी उपस्थित थे। उसमें जो मुख्य प्रस्ताव स्वीकार किया गया वह वैसा ही था जैसा बॉक्सबर्ग में स्वीकार किया गया था और उसमें सदाकी भाँति भ्रान्तिपूर्ण बातें कही गईं। हाँ, सभा के लिए रुचिकर बनानेके उद्देश्यसे उसमें मिर्च-मसाला भी ज्यादा मिलाया गया था। उदाहरणार्थ, एक वक्ताने कहा कि भारतीयों में "वे गुण नहीं हैं जो नगर-निवासियों में वांछनीय हैं", क्योंकि उनसे "कोई स्थायी और प्रगति-शील ढंगकी बात" नहीं बन पड़ती। एक दूसरे वक्ताने कहा, "वे गाड़ियाँ नहीं रखते, माल नहीं खरीदते और रुपया खर्च नहीं करते। एक तीसरे वक्ता बोले, अगर कोई भारतीय दिनभर के कामसे ५ शिलिंग कमाता है तो वह भोजन किये बिना रह जाता है, और अगर ५ पौंड कमा ले तो भी चिड़िया ही हलाल करता है।" ये वक्तव्य उन लोगोंके हैं जो साधा- रण व्यावसायिक मामलों में संजीदा माने जाते हैं। एक वर्गके लोगोंको जानबूझकर गिराना, उन्हें बाड़ों में बन्द करना, उन्हें जमीन खरीदने के अधिकारसे वंचित करना और फिर पलटकर उन्हींपर यह आरोप लगाना कि उनमें नागरिकताके वांछित गुणोंका अभाव है, बहुत बढ़िया मजाक है। अगर इन योग्य वक्ताओं में से किसीने जूटपान्सबर्ग जिलेकी सीमासे बाहर यात्रा की हो तो हम उसका ध्यान उस काम की ओर आकृष्ट करनेका साहस कर सकते हैं जो केपटाउन, डर्बन और दूसरे स्थानोंमें, जहाँ उन्हें कुछ अधिकार दिये गये हैं, प्रगतिशील नाग-रिकोंके रूपमें भारतीयोंने किया है। उन्होंने इनमें से प्रत्येक नगरमें ऐसी व्यापारिक कोठियाँ बनाई हैं जिनकी तुलना किसी भी अभारतीय कोठीसे की जा सकती है और इन स्थानोंके निर्माण में उन्होंने यूरोपीय शिल्पकारों, यूरोपीय ठेकेदारों, यूरोपीय निर्माण व्यवस्थापकों, ईंट पाथनेवालों और खातियों वगैराको नौकर रखा है। इनमें से कुछ इमारतें यूरोपीयोंने भी किराये पर ले रखी हैं। हम एक यूरोपीयका उदाहरण जानते हैं, जो लगभग बीस सालतक किरायेदार रहा। इस अर्से में भारतीय मकान मालिकने कभी उसका किराया नहीं बढ़ाया। वह किरायेदार गरीब हो गया था और किराया नहीं चुका सकता था। उदारमना मकान मालिकने उसपर कई वर्षोंका किराया माफ कर दिया और मकान खाली करानेके लिए कार्रवाई नहीं की। यह बात सच्ची है, कोई किस्सा कहानी नहीं। किसी सच्चे जिज्ञासुको हम फरीकोंके नाम भी खुशीसे बता देंगे। हम पूछ सकते हैं कि क्या ये सब बातें नागरिकताके सद्गुणोंका अभाव प्रकट करती हैं? एक वक्ताने यह भी कहा कि "एशियाई सवालका सही हल है, 'अधिकसे अधिक लोगों की अधिकसे अधिक भलाई' का आम सिद्धान्त लागू किया जाना।" हमें स्वीकार