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डर्बनके महापौर


करना होगा कि हम इस सिद्धान्तपर आंख मूंदकर विश्वास करते हैं। हमारा खयाल है कि अनेक मामलोंमें इससे बेहद खराबी हुई है और संसारकी प्रगतिके इतिहास में आगे भी इससे ऐसा होनेकी सम्भावना है। परन्तु दलीलकी खातिर इसे सही मानकर इसके उपयोगकी परीक्षा करके देखें। उस सभामें जो सज्जन बोले वे व्यापारियोंके प्रतिनिधि थे। भारतीयोंका अपराध यह है कि वे उनसे स्पर्धा करते हैं। वे जीवनकी आवश्यक वस्तुओंके दाम घटा देते हैं और चूँकि उनके पास धीरजकी पूंजी है, अतः उनके मालकी बिक्री अच्छी होती है, खास तौरपर उन लोगों में जिनके पास ज्यादा पैसा नहीं होता, चाहे वे यूरोपीय हों या वतनी। उस दशामें अगर भारतीय व्यापारियों से यूरोपीय सौदागरोंको नुकसान भी पहुँचता हो, जिसे हम नहीं मानते, तो भी उनसे कुल मिलाकर ट्रान्सवालके अधिकसे-अधिक लोगों को तो फायदा ही पहुँचता है। इसके सबूत में यह तथ्य खण्डनका भय छोड़कर पेश किया जा सकता है, कि उन्हें अपने व्यवसायके लिए गरीब गोरों, जिनमें डच भी हैं, और वतनी लोगोंकी सहायतापर निर्भर रहना पड़ता है। और आश्चर्य है कि, स्वयं इस सभामें यह आवश्यक समझा गया कि “एशियाइयोंके साथ व्यापारको अनुत्साहित करनेके उपाय खोजने के उद्देश्यसे" एक काम चलाऊ श्वेत-संघ-समिति स्थापित की जाये। इसके विधानका मसविदा तैयार करनेका काम महापौर और दूसरे लोगोंके हाथोंमें छोड़ दिया गया है। अब हम देखते हैं कि स्थानीय निकाय इस प्रकारके मामलेमें भी पक्ष ले रहा है। परन्तु हम जानते हैं कि इस सम्बन्धमें हम व्यर्थ तर्क करते हैं। जिन लोगोंकी नस-नस में विद्वेष भरा हुआ है उनकी विवेक-बुद्धिसे अपील बिलकुल बेकार है। हम इतनी आशा ही रख सकते हैं कि जो काम शायद विवेक-बुद्धिसे नहीं हो सकता वह समय गुजरने के साथ-साथ खुद पूरा हो जायेगा, क्योंकि समय घावोंको भरनेवाली सबसे बड़ी औषधि है। और भारतीय धैर्य से प्रतीक्षा कर सकते हैं क्योंकि न्याय उनके पक्षमें है।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १३-८-१९०४

१९६. डर्बनके महापौर

हमें श्री एलिस ब्राउनको तिबारा मुख्य नगर न्यायाधीश चुने जानेपर बधाई देनी है। यह शहर प्रगतिशील है और दिनपर दिन बढ़ रहा है। चूँकि इसमें अनेक देशोंके लोग रहते हैं जिनके स्वार्थ अक्सर परस्पर-विरोधी होते हैं, महापौरका पद कोई पका पकाया हलवा नहीं है। श्री एलिश ब्राउन ऐसे सज्जन हैं जिनमें विभिन्न प्रकारकी योग्यताएँ हैं और जो बड़े परिश्रमशील हैं। जहाँतक ब्रिटिश भारतीयोंका सम्बन्ध हैं वे उन्हें अच्छी तरह जानते हैं; वे खुद इस समाजके सब वर्गों से अक्सर सम्पर्कमें आये हैं और बाजारंके प्रश्नपर अपनी रायके कारण वे जरूर बदनाम हैं, किन्तु दूसरी बातोंमें उनकी ख्याति न्यायपरायण और निष्पक्षकी ही रही है। बाजार के मामलेमें बहुतसे अन्य लोगोंकी तरह वे भी क्यों विवेक खो बैठे, यह आसानीसे समझमें आ जाता है। उस समय वे लॉर्ड मिलनरके प्रभावमें काम कर रहे थे। भारतीयोंपर परमश्रेष्ठकी पिछले सालकी सूचना ३५६का[१] प्रभाव बम गोलेके जैसा हुआ। उससे सरकारकी भारतीय-सम्बन्धी नीति पुष्ट हो गई और उसका अर्थ यह हुआ कि परम-

  1. देखिए खण्ड ३, पृष्ठ ३१४ ।