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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


श्रेष्ठको पुराना गणराज्य कानून स्वीकार है। स्वभावतः हमारे सुयोग्य महापौरने सोचा कि इस- पर अवश्य ही ब्रिटिश मन्त्रालयसे मंजूरी मिल गई होगी। इसके अलावा उनका खयाल था कि जो बात एक शाही उपनिवेशमें की जा सकती है, जहाँ उस सूचनाका विषय ही युद्धका एक कारण था, उसकी अनुमति नेटाल जैसे स्वशासन-भोगी उपनिवेशमें तो अवश्य ही होनी चाहिए। अस्तु, इसी कारण उन्होंने अपना मसविदा भारतीय समाजके विरुद्ध तैयार किया था। फिर भी हमें आशा है कि वह अब भुला दिया गया होगा और अगर हमने इस गड़े मुर्देको फिरसे उखाड़ा है तो सिर्फ यह दिखानेके लिए कि वह एक अस्थायी भूल थी और उससे श्री एलिस ब्राउनका आम रुख हरगिज जाहिर नहीं होता। हम चाहते हैं कि उनके महापौर-कालमें उन्हें और भी सफलता मिले और नगर खुशहाल हो।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १३-८-१९०४

१९७.हमारे पितामह

पिछली डाकसे इंडियाका जो अंक मिला है उससे भारत-पितामह श्री दादाभाई नौरोजीकी[१] सतत क्रियाशीलताका पता चलता है। यदि कोई बात उनके करोड़ों स्वदेशवासियोंके लिए जरा भी फायदेकी हो तो वे उससे नहीं चूकते। उन्होंने ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंके दर्जे के प्रश्नपर श्री लिटिलटनसे पत्र-व्यवहार किया था, जो इंडियामें छपा है और जिसे हम अन्यत्र उद्धृत कर रहे हैं। यह उनकी क्रियाशीलताका केवल एक उदाहरण है। उनकी उम्र में बहुत से लोग सार्वजनिक जीवनसे छुट्टी लेने और विश्रामके अधिकारका उपभोग करने के हकदार हो जाते हैं। परन्तु श्री नौरोजी बुढ़ापे में भी देशके लिए काम करनेवाले बहुतेरे नौज- वानोंसे बाजी मार सकते हैं। वे अपने स्वेच्छासे अंगीकृत देश-निकालेमें एक ही सुख जानते हैं और वह है उन कामोंको करनेका सुख, जिन्हें वे अपने देशवासियों के प्रति कर्त्तव्य समझते हैं। हम किसी अतिशयोक्तिके बिना कह सकते हैं कि केवल भारत में ही नहीं, बल्कि संसारके किसी भी भाग में जीवनको निष्कलंक शुद्धता, पूर्ण स्वार्थहीनता और पुरस्कार या प्रशंसाकी परवाह किये बिना अखण्ड सार्वजनिक सेवाकी दृष्टिसे श्री नौरोजीके जोड़का दूसरा व्यक्ति मिलना कठिन होगा।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १३-८-१९०४
  1. देखिए खण्ड १, पृष्ठ ३९३ ।