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१९८. ट्रान्सवालकी पैदल-पटरियाँ

विधान परिषद में पिछले सप्ताह उपनिवेश सचिव द्वारा नगर-निगम अध्यादेशमें प्रस्तावित संशोधनपर दिलचस्प बहस हुई। संशोधनमें नगरपालिकाओंको यह अधिकार दिया गया है कि,

उन वतनी लोगोंको, जिनके पास १९०१ की रंगदार व्यक्तियोंको राहत देनेवाली घोषणाके मातहत मुक्तिपत्र न हों और उन रंगदार लोगोंको भी, जिनका वेष सभ्योचित और आचरण अच्छा न हो, सार्वजनिक मार्गको पैदल पटरियोंका इस्तेमाल करनेसे रोक दिया जायेगा।

इस संशोधनका विरोध श्री ब्रिकने किया और जैसी कि आशा की जा सकती थी, समर्थन श्री लवडेने। माननीय सज्जनने कहा कि पुराने नियमोंको छेड़ा न जाये। अब, पुराने नगर-नियमोंमें रंगदार लोगों द्वारा पैदल पटरियोंके इस्तेमालकी बिलकुल मनाही है। और उन्होंने कहा कि पुराने कानूनमें कुछ भी परिवर्तन करना सरकार द्वारा लोगोंके अधिकारों और विशेषाधिकारोंका अतिक्रमण करना होगा। महान्यायवादीने कहा कि पुराने कानूनके अनुसार तो यदि काफिर पटरीपर होकर दूकानमें घुस भी रहा हो तो वह इसपर भी गिरफ्तार किया जा सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि इस कानूनपर अमल नहीं किया जाता था और गणराज्य सरकारके दिनोंमें भी सभ्योचित कपड़े पहने हुए रंगदार लोगोंसे छेड़खानी नहीं की जाती थी। इसमें हम एक भारतीयकी मिसाल जोड़ सकते हैं, जिसे धक्का देकर पटरीसे हटाया गया था और जिसने उस समयके ब्रिटिश एजेंटसे शिकायत की थी। ब्रिटिश एजेंटने भारतीयकी रक्षाका काम तुरन्त हाथमें लिया और राज्य-सचिव डॉ० लीड्सको एक कड़ा विरोध-पत्र भेजा। उन्होंने उत्तरमें क्षमा-याचनाका पत्र भेजा और कहा कि पुलिसने भूल और गलत-फहमीसे ही पटरीपर चलनेवाले भारतीयसे छेड़खानी की है। उन्होंने ब्रिटिश एजेंटको विश्वास दिलाया कि आयन्दा ऐसी घटनाएँ नहीं होंगी। उस समय कानूनकी ऐसी शिथिलतापर श्री लवडेने कोई आपत्ति प्रकट नहीं की थी। परन्तु अब जब सरकार उस शिथिलताको मान्यता देना चाहती है तब श्री लवडे और उनके मित्र कुपित हो रहे हैं। फिर भी अवश्य ही सभीको यह स्पष्ट हो जायेगा कि यद्यपि सरकारी संशोधनका उद्देश्य राहत दिलाना है, तथापि यह स्थिति खुले अपमानसे कम नहीं है। क्योंकि पटरियोंके उपयोगके बारेमें भेदभाव बरतना ब्रिटिश परम्प-राओंके बिलकुल विपरीत है। ऐसी बात इस बीसवीं सदीके जागृत युगमें, वह भी ट्रान्सवालमें और इस सरकार के नाम पर ही सम्भव हो सकती है। और सभ्योचित पोशाक और अच्छे आचरण सम्बन्धी व्यवस्था इतनी लचीली है कि अगर पुलिसको खास हिदायतें न हों तो उसके अन्तर्गत बहुत बुराई हो सकती है। डॉ० टर्नर यद्यपि सरकारी सदस्य हैं, तथापि उन्होंने भी महसूस किया है कि यह सारी बात हास्यास्पद है और उन्होंने एक गोरेका अत्यन्त उपयुक्त और विनोदात्मक उदाहरण दिया, जिसे उन्होंने प्रिटोरियाके सरकारी भवनके बाहर देखा था। वह अपनी “जेबोंमें हाथ डाले और मुँहमें पाइप लगाये इधर से उधर घूम रहा था और पूरे छः फुटके घेरेमें सब तरफ थूक रहा था।" इसलिए यह सवाल रंगका नहीं, सफाई और तन्दुरुस्तीके कायदोंका है। वाजिब बात यह होगी कि जो पटरियोंको खराब करें उन सबको सजा दी जाये और यही एक बुद्धि-संगत, सुरक्षित और निर्दोष उपाय है।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २०-८-१९०४