इसलिए हम तो उसका ध्यान केवल उपनिवेश-मन्त्री श्री लिटिलटनके उस वक्तव्यकी ओर आकृष्ट कर सकते हैं जो उन्होंने इसके समर्थन में दिया है। उन्होंने कहा है कि गैर-गिरमिटिया भारतीयों में आत्महत्याओंकी संख्या १० लाखमें १५७ है और गिरमिटिया भारतीयोंमें ७६६। इसलिए यदि हमने भूल की है तो उसमें हमारे साथी अच्छे-अच्छे लोग हैं और "आंग्लभारतीय" तथा "एक गोरे" के कथनोंके बावजूद हम अपने कथनपर कायम हैं और यह आग्रह करते हैं कि इस बारेमें जाँच करायी जानी चाहिए।
इंडियन ओपिनियन, २०-८-१९०४
२०१.श्री लिटिलटनका खरीता
ट्रान्सवाल विधान परिषदमें भारतीय व्यापारियोंके प्रश्नपर चर्चा और श्री लिटिलटनके खरीतेका प्रकाशन-इस अति दुःखदायी विवाद के इतिहासमें एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मंजिलके सूचक हैं। एक तरफ ब्रिटिश सरकार देखती है कि उसने ब्रिटिश भारतीयोंके जिन अधिकारोंकी रक्षा बोअर-राज्य में इतनी जागरूकता के साथ की थी उन्हें वह अपने राष्ट्रीय सम्मानकी रक्षा करते हुए छोड़ नहीं सकती। दूसरी तरफ स्थानीय सरकार और उपनिवेशी लोग भारतीयोंको जड़से उखाड़ फेंकनेपर तुले दिखाई देते हैं। सर जॉर्ज फेरारने अनेक वार जोरदार शब्दोंमें कहा है कि जब कभी उत्तरदायी शासन आयेगा तब शायद उसका पहला काम होगा—भारतीय व्यापा-रियोंको मुआवजा देकर मिटा देना। हम सब जानते हैं कि मुआवजा देनेका मतलब क्या होता है। तो इस तरह साम्राज्यके हितों और स्थानीय गोरोंके विद्वेषमें सीधी टक्कर है।—हम इस विद्वेषको स्थानीय हितोंका नाम देकर गौरवान्वित नहीं करेंगे, क्योंकि हमारा खयाल है कि भारतीयोंकी मौजूदगी से गोरे समाजको किसी भी तरहका खतरा नहीं है। हमने इन स्तम्भों में अनेक बार कहा है कि भारतीयोंने केप और नेटाल दोनोंमें कहींसे भी, जहाँ उनको ट्रान्सवालकी अपेक्षा कुछ अधिक अधिकार प्राप्त हैं, गोरे व्यापारियोंको खदेड़ा तो नहीं है; प्रत्युत वे गोरोंके साथ-साथ ईमानदारीसे अपनी रोजी कमा रहे हैं। निरर्थक द्वेष करनेवाले लोग इस बातपर विचार ही नहीं करते कि कई बातों में यूरोपीयोंको अपरिमित रूपसे अच्छी सुविधाएँ मिली हुई हैं और भारतीयोंमें संगठन-शक्तिका अभाव है। इन दो बातोंसे भारतीयोंकी जो हानि होती है वह उनके तथाकथित सस्ते रहन-सहन के लाभसे बहुत भारी बैठती है। परन्तु सच बात तो यह है कि कभी किसीने भी भारतीयोंकी तरफसे व्यवसायके असीमित अधिकार नहीं माँगे हैं। जरूरत सिर्फ इतनी ही है। कि निहित स्वार्थीकी पूर्ण रूपसे रक्षा की जाये और भारतीयोंको भावी व्यापारमें उचित हिस्सा दिया जाये। जब सर जॉर्ज फेरार और श्री बोर्क जैसे लोग जोर-जोरसे यह भाषण देते हैं कि भारतीयोंको व्यापार करते रहने देनेकी अवस्थामें उपनिवेशका सत्यानाश हो जायेगा, तब हमें वह दृश्य ऐसा अपमानजनक दिखाई देता है, जो हमें कहना चाहिए, ब्रिटिश परम्पराओंपर चलनेका दावा करनेवाले लोगोंके अयोग्य है—खास तौरसे तब, जब उन्हें जरूर मालूम है कि उनके मुकाबले में भारतवासियोंकी संख्या नगण्य है, और उनमें से कोई एक अकेला ही उपनिवेशके सारे भारतीयोंके व्यवसायको तीन-तीन बार खरीद सकता है। अगर इतनी बात विधानपरिषदके गैर-सरकारी सदस्योंके बारेमें न्यायपूर्वक कही जा सकती है तो हम सरकारी रवैये के बारेमें क्या सोचें? हम उन लॉर्ड मिलनरके बारेमें क्या खयाल करें जो आज श्री लिटिलटनसे कहते हैं कि भारतीयोंका लगभग सब कुछ छीन लिया जाये और जो लड़ाईसे पहले भारतीयोंके हितोंका समर्थन इतने जोरके