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पत्र: " स्टारको "

स्वार्थी और ट्रान्सवालमें गौरव और आत्मसम्मानके साथ ईमानदारीसे रोजी कमानेके अपने अधिकारके बारेमें विशेष विचारके पात्र हैं । उन्हें हमेशा यह बात खटकती नहीं रहनी चाहिए कि ब्रिटिश शासनमें उनकी चमड़ीका रंग राजनैतिक आजादीसे भिन्न मामूली नागरिक स्वतन्त्रताकी प्राप्ति में भी बाधक है ।

आपका आज्ञाकारी सेवक,
अध्यक्ष
ब्रिटिश भारतीय संघ

[ अंग्रेजीसे ] इंडियन ओपिनियन, ३-९-१९०४

२०३. पत्र : "स्टार "को[१]

कोर्ट चेम्बर्स
जोहानिसबर्ग०
सितम्बर ३, १९०४

सेवामें

संपादक

स्टार
महोदय,

ब्रिटिश भारतीय संघके आवेदनपत्र के बारेमें अपने सम्पादकीय लेखके सम्बन्धमें, मुझे विश्वास है, आप मुझे कुछ शब्द कहने देंगे। मुझे भय है कि आपने आवेदनपत्र के सबसे महत्त्व- पूर्ण मुद्देपर ध्यान नहीं दिया और मेरी नम्र रायमें इस देशके पत्रकार जनताका ध्यान इस बातकी तरफ दिलाकर उसकी सेवा करेंगे कि आवेदनपत्रसे उन यूरोपीयोंके सबसे जोरदार ऐत- राजोंका पूरा समाधान हो जाता है, जो भारतीयोंका अमर्यादित प्रवास नहीं चाहते और उन्हें नये परवाने दिये जानेके विरुद्ध हैं। संघ केपके नमूनेपर एक प्रवासी अध्यादेश जारी करनेके सर आर्थर लालीके प्रस्तावको स्वीकार करता है और एक ऐसा सुझाव देता है जिससे स्वयं आपत्ति करनेवालों, अर्थात् स्थानीय अधिकारियोंको नये परवाने जारी करनेपर नियन्त्रण प्राप्त होगा । क्या भारतीय इससे आगे जा सकते थे ? यह नहीं भूलना चाहिए कि जब स्वर्गीय श्री क्रूगरने विधानसभा के प्रस्तावों द्वारा पिछले उच्च न्यायालयके फैसलेको रद करना चाहा था तो उनका जबरदस्त विरोध हुआ था। वे ही उपनिवेशी, जो उस समय विरोधी थे, अब वही माँग रहे हैं जिसका उन्होंने विरोध किया था, क्योंकि एशियाइयोंको परवाने देना बन्द या स्थगित करके वे सर्वोच्च न्यायालयके निर्णयको ही ठुकरा देना चाहते हैं । अगर स्वार्थने ब्रिटिश न्यायकी सुन्दर भावनाको अस्थायी रूपसे अन्धा न बना दिया होता तो ऐसी बात किसी ब्रिटिश देशमें असम्भव होती । और फिर भी ब्रिटिश भारतीय संघ आम लोगोंके द्वेषभावको मान्यता देकर, जबरदस्त संघर्ष के बाद महँगी कीमत चुकाकर प्राप्त की हुई विजयके फलको बहुत कुछ छोड़ देने के

४-१८

  1. यह इंडियन ओपिनियनमें इस शीर्षकके साथ पुनः छापा गया था: " ब्रिटिश भारतीय संघ : श्री गांधीका पत्र " ।