जहाँ देशमें पहलेसे मौजूद भारतीयोंके निहित स्वार्थोकी रक्षाके लिए लोकमतके विरुद्ध जाकर भी कानून बनाना हमारे लिए उचित होगा वहाँ, समूचे रूपमें लें तो, एशियाई प्रश्नके सम्बन्धमें इस तरीकेका कानून बनाना उचित नहीं होगा जो बहुसंख्यक यूरोपीय आबादीकी आवाजके विरुद्ध हो ।
तो यदि निहित स्वार्थोंकी रक्षा करनी है तब तो श्री लिटिलटनने सचमुच इससे ज्यादा किसी चीजकी माँग नहीं की, क्योंकि हमारा दावा है कि जो भी भारतीय अब ट्रान्सवालमें आबाद हैं उन्हें गणराज्यकी हुकूमतमें स्वतन्त्र व्यापार करनेकी इजाजत थी। इसलिए इस प्रकार व्यापार करनेकी योग्यता उनका निहित स्वार्थ है, भले ही वे दरअसल व्यापार करते हों या न करते हों । और जो आयन्दा आयेंगे वे तो केवल वे लोग ही होंगे जो सभ्यताका एक निश्चित दर्जा प्राप्त कर चुके हैं। इस तरह परमश्रेष्ठकी ओरसे किया गया सारा [वि]रोध[१] बेकार [हो जाता ] है । परन्तु दुर्भा]से दो पिछले [वर्षों] में हमने ऐसी बातें सीखी हैं [ जिनसे] हम कह सकते हैं, [यद्य]पि [यह कहना ] दुःखदायी हो सकता है, कि लॉर्ड मिलनर जो कुछ कहते हैं वह चाहते नहीं हैं । वे ज्यादा अच्छे वर्गके एशियाइयोंको विशेष अधिकार देनेका कोई इरादा नहीं रखते। और निहित अधिकार घटते घटते उस व्यापारतक आ गये हैं जो वास्तवमें ११ अक्तूबर १८९९ को भारतीयोंके हाथों में था। क्योंकि क्या एशियाई व्यापारी आयोगका यह कहना नहीं था कि उसे केवल उन्हीं भारतीयोंके मामलोंकी जाँच करनेका अधिकार है, जो लड़ाई छिड़नेके समय और उसके तुरन्त बाद व्यापार कर रहे थे; और वह अपने अधिकारके अनुसार उन्हीं लोगोंके मामले निपटा सकता है जो अक्तूबर १८९९ में व्यापार करते थे ? अगर सर्वोच्च न्यायालयके निर्णयके रूपमें भगवानकी दया न होती तो इस समयतक उपर्युक्त अधिकारके अनुसार ७५ फी सदीसे ज्यादा भारतीय व्यापारियोंका अस्तित्व मिट गया होता और शायद उपनिवेश कार्यालयने भी कुछ न किया होता। इसलिए हमारी माँग है कि नीति साफ-साफ बता दी जाये । यूरोपीय विरोधके बारेमें भी परमश्रेष्ठ इतना जोर दे रहे हैं। हमें इसपर भी आपत्ति है । इसके दो कारण हैं: (पहला) ब्रिटिश प्रजाजनोंके किसी एक समूहकी ओरसे किये गये विरोधका प्रयोग किसी दूसरे समूहके अधिकारोंको छीननेके लिए नहीं किया जा सकता; (दूसरा) वह विरोध स्वयं सरकार द्वारा पोषित किया जाता है। इस बारेमें श्री लिटिलटनके खरीतेसे भ्रम बिल- कुल दूर हो गया है । यद्यपि जब सर जॉर्ज फेरारकी प्रेरणासे एशियाई व्यापारिक आयोग नियुक्त किया गया तब कमजोर पक्षकी तरफसे श्री डंकन और सर रिचर्ड सोलॉमनने सफाई पेश की थी और वह हमें न्यायसंगत प्रतीत हुई थी । किन्तु जैसा खरीतेसे मालूम होगा, वे दोनों ही श्री लिटिलटनसे अधिकसे-अधिक जोरके साथ यह माँग कर रहे हैं कि वे भारतीयोंसे लगभग सब कुछ छीन लें। हम देखते हैं कि उसी तरह विधान परिषद भी यूरोपीय भावनाकी पूर्तिका साधन है। सर जॉर्ज फेरारने प्रस्ताव रखा था कि इंग्लैंड एक आयोग नियुक्त करे और इस बीचमें भारतीयोंको नये परवाने देना बिलकुल बन्द कर दिया जाये | सरकारने उसे खुशीसे मंजूर कर लिया है। जब स्वर्गीय श्री क्रुगरने अपने ही उच्च न्यायालयके फैसलोंको निकम्मा करनेके लिए प्रस्ताव पास किये तब उनपर भीषण दोषारोपण किये गये । उनका आचरण पाश- विक और अदूरदर्शितापूर्ण समझा गया और उन्हें भद्दी-भद्दी गालियाँ, जो दी जा सकती थीं, दी गई। लेकिन जब वही बात ब्रिटिश ताजके नुमाइन्दोंकी तरफसे प्रस्तावित की जाती है तब विरोध में एक भी आवाज नहीं उठाई जाती । ट्रान्सवालके स्वतन्त्र न्यायाधीशोंने उपनिवेशमें भार-
- ↑ मूलमें जहाँ-तहाँ कट-फट जानेसे कोष्ठकोंमें दिये गये शब्दों और शब्दांशोंकी पूर्ति की गई है ।