तीयोंका व्यापार करनेका हक अपने सर्वसम्मत निर्णयमें जोरदार शब्दोंमें स्वीकार किया है । किन्तु अब उसीको छीननेका प्रस्ताव किया जा रहा है। इसलिए हम आशा करते हैं कि श्री लिटिलटन उस स्थितिको महसूस करेंगे जिसमें ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय हैं और यह भी अनुभव करेंगे कि स्थानीय सरकारने राग-द्वेषमें आम लोगोंके साथ पूरी तरह तादात्म्य स्थापित कर लिया है। इस कारण वह इस स्थितिमें नहीं है कि कोई निष्पक्ष राय दे सके । असल बात यह है कि सही या गलत, किसी भी तरह, वह बहुत बदनाम हो चुकी है। बहुत-से दूसरे मामलों में भी उसकी नीतिसे ट्रान्सवालके लोग गम्भीर रूपसे असन्तुष्ट हैं। इसलिए वह भारतीयोंके मामलेमें न्याय करनेसे डरती है । क्योंकि यह मामला उन लोगोंका है, जिनकी कोई आवाज नहीं है और जिनके पास सरकारको तंग करनेकी कोई ताकत भी नहीं है । हमारी हार्दिक प्रार्थना है कि श्री लिटिलटनको यथेष्ट बल प्राप्त हो, जिससे वे भारतीय प्रश्नके सम्बन्धमें, जिसे वे " राष्ट्रीय सम्मान" कहते हैं, उसकी रक्षा कर सकें ।
[ अंग्रेजीसे ] इंडियन ओपिनियन, ३-९-१९०४
२०५. पत्र : दादाभाई नौरोजीको[१]
२५ व २६ कोर्ट चेम्बर्स
रिसिक स्ट्रीट
जोहानिसबर्ग
सितम्बर ५, १९०४
माननीय दादाभाई नौरोजी
२२,केनसिंगटन रोड
लन्दन,इंग्लैंड
भारतीय प्रश्नसे सम्बन्धित मामले अब नाजुक हालतमें पहुँच चुके हैं। इंडियन ओपिनियनसे आपको आज तककी सारी जानकारी मिल जायेगी । उसमें प्रकाशित ब्रिटिश भारतीय संघके निवेदनसे, मेरी समझ में, परिस्थिति स्पष्ट हो जायेगी । संघके प्रस्ताव जितने नरम हो सकते थे उतने नरम हैं, और उनमें ब्रिटिश भारतीयोंके कमसे कम हक- जिनमें और कमी हो ही नहीं सकती - पेश किये गये हैं । आप देखेंगे कि उनमें उपनिवेशियोंकी सभी उचित आपत्तियोंको मिटा दिया गया है। शैक्षणिक कसौटीका मुद्दा भी मान लिया गया है। किन्तु परवानोंके प्रश्नपर
- ↑ दादाभाई नौरोजींने इस पत्र की बातें, पीछे जोड़े गये शब्दोंके साथ, एक वक्तव्यके रूपमें उपनिवेश- मन्त्रीको (सी० ओ० २९१, खण्ड ७९, इंडीविजुअल्स-एन) और भारत-मन्त्रीको (सी० ओ० २९१, खण्ड (७५, इंडिया ऑफिस ) भेजी थीं । उक्त वक्तव्य ७-१०-१९०४को इंडियामें जोहानिसबर्ग-संवाददाता के ९ सितम्बर के संवाद के रूपमें छपा था ।