सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/३०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

२०६. ट्रान्सवाल

हम लॉर्ड मिलनर और सर आर्थर लालीके महत्त्वपूर्ण खरीते छाप चुके हैं। श्री लिटिलटनका खरीता भी, जो इनका जवाब था, इन स्तंभों में पहले ही छापा जा चुका है। इन दस्तावेजोंसे ट्रान्स- वालमें ही नहीं, परन्तु दक्षिण आफ्रिका भरमें भारतीय प्रश्नका महत्त्व प्रकट होता है । ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय संघने उपनिवेश-सचिवके नाम एक आवेदनपत्र प्रिटोरिया भेजा है। (इसे हम पिछले सप्ताह उद्धृत कर चुके हैं)[]। इसमें परमश्रेष्ठ लेफ्टिनेंट गवर्नरके खरीतेमें कही गई कुछ निश्चित बातोंका खण्डन किया गया है। खरीतेमें उन्होंने साफ तौरपर अपनेको एक निष्पक्ष शासककी अपेक्षा पक्षपाती ही अधिक सिद्ध किया है। उस खरीतेमें आदिसे अन्ततक वे सब मुद्दे सामने लानेकी उत्सुकता है, जिनकी कल्पना परमश्रेष्ठ इस रूपमें कर सके हैं कि वे यूरोपीयोंके ऐतराजोंके अनुकूल हैं। उन्होंने श्री लिटिलटनको यह सलाह देने में भी संकोच नहीं किया है कि वे जिस सरकारके नुमाइन्दे हैं उसके नामपर ब्रिटिश भारतीयोंको बार-बार दिये गये वचन भी तोड़ दिये जायें। हमारा खयाल यह नहीं है कि राज्यके कारोबारमें ऐसे हालात हो ही नहीं सकते जिनमें एक बार दिये गये वचन भंग करना उचित हो । परन्तु इस मामलेमें ऐसा करनेके लिए जरा भी औचित्य नहीं है। सर आर्थर लालीने सर चार्ल्स नेपियरकी १८४३ की घोषणाका विवेचन किया है और उनका विचार है कि उस समयकी स्थिति आजकी स्थितिसे बिलकुल भिन्न थी । किन्तु, जैसा ब्रिटिश भारतीय संघने परमश्रेष्ठको याद दिलाया है, उस वचनपर १८९९ तक अमल किया गया था । बहुत दिन नहीं हुए, जब लॉर्ड रिपन उपनिवेश-मन्त्री थे, उन्होंने अपने खरीतेमें सरकारकी जोरदार नीति यह निर्धारित की थी कि सम्राज्ञी सरकारकी यह इच्छा है कि उनके तमाम प्रजाजनोंके साथ बराबरीका बरताव किया जाये । हमें स्वीकार करना चाहिए कि हमें कोई भी परिस्थिति ऐसी दिखाई नहीं देती जिससे गम्भीरतापूर्वक किये गये और दुहराये गये वादे जानबूझकर तोड़ना वाजिब माना जाये। इस बातका भी कोई कारण नहीं है कि पहले प्रश्नको बेहद बढ़ा-चढ़ा कर बताया जाये और फिर अन्याययुक्त और भेदभावपूर्ण कानून बनानेकी बातको उचित कहा जाये । अगर ट्रान्सवालका दरवाजा भारतसे लाखों लोगोंके आनेके लिए बिल- कुल खुला रखनेकी तजवीज हो तो ऐसा ढंग समझमें आ सकता है। परन्तु जिस साँसमें सर आर्थर लाली यह भयावह चित्र खींचते हैं कि अगर इस देशमें भारतके लाखों लोगोंको भर जाने दिया गया तो ट्रान्सवालकी स्थिति बड़ी भयंकर हो जायेगी, उसी साँसमें वे केप- कानूनको अपनानेकी वकालत भी करते हैं, जिससे भारतीयोंका प्रवास समाप्तप्राय हो जायेगा । १० लाख गोरोंकी आबादीमें, जो सतत बढ़ रही है, कुछ हजार भारतीयोंको अपमानजनक पाबन्दियोंमें रखना ऐसा कृत्य है जिसे किसी ब्रिटिश उपनिवेशमें पल-भर भी बरदाश्त नहीं किया जाना चाहिए। सर आर्थर लालीने अपनी प्रातिनिधिक हैसियतसे इस तरहके कानूनकी वकालत करना उचित माना है, यह स्थिति एक अशुभ महत्त्वकी सूचना देनेवाली है । आज भारतीय प्रश्नके बारेमें जो कुछ हुआ है वह कल किसी और प्रश्नके सम्बन्ध में भी हो सकता है । भविष्यके लिए चिन्ताका विषय वह सिद्धान्त होना चाहिए, जो इसकी तहमें निहित है । अगर परमश्रेष्ठके विचार ब्रिटिश शासकोंको जरा भी प्रिय हैं तो हमारी विनम्र सम्मतिमें वे उन सर्वोच्च ब्रिटिश परम्पराओंसे पतित होनेकी निशानी हैं, जिनके कारण साम्राज्यका वर्तमान रूप बना है । और जिस समय साम्राज्य भर में तथाकथित “साम्राज्य-भावना" लहरा रही है उसी समय शायद उसके अवच्छेदके बीज भी बोये जा रहे हैं । उपनिवेशियोंके साथ नाममात्रका सम्बन्ध रखनेके लिए

  1. देखिए “प्रार्थनापत्र : उपनिवेश सचिवको ", " सितम्बर ३, १९०४ से पूर्व