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ट्रान्सवाल

इंग्लैंड को अपने तमाम उदात्त और उत्तम आदर्शोंका बलिदान करना पड़ रहा है। ब्रिटिश भारतीय संघका आवेदनपत्र देखते हैं तो हम वह अकाट्य मालूम होता है और यदि सरकार उसमें किये गये प्रस्तावोंको मान लेती है तो इस कठिन प्रश्नका हल बहुत ही आसान हो जाता है। हमारे खयालसे हालके परीक्षात्मक मुकदमे में दिये गये निर्णयसे जो लाभ हुआ है संघ, उसको अपना आधार बना सकता था, लेकिन चूंकि जीवन स्वयं समझौतोंका समूह है और राजीनामेकी नीति किसी अन्य नीतिसे अच्छी होती है, इसलिए संघने प्रवासी और विक्रेता- परवानोंके मामलेमें भी बहुत ही माकूल और समझौते के सुझाव पेश करके अच्छा ही किया है। परन्तु एक बात याद रखनी चाहिए कि वह उनकी ऐसी न्यूनतम माँग है- - और होनी भी चाहिए - • जिसमें और कमीकी कोई गुंजाइश नहीं है । यही स्वीकार करनेकी भारतीय समाजसे आशा रखी जा सकती है। हम शिक्षाकी कसौटीमें भारतीय भाषाओंके निषेधके विचारसे कभी सहमत नहीं हो सके हैं। यह निषेध अकारण है और यह बात हमेशा खटकती रहेगी कि लॉर्ड मिलनर और सर आर्थर लाली दोनोंने श्री लिटिलटनके भारतीय भाषाओंको मान्यता देनेके सर्वथा न्याय- पूर्ण प्रस्तावको नहीं माना । किन्तु शान्तिको खरीदने के लिए और यह दिखानेके लिए कि भारतीय अत्यन्त विकट परिस्थितियोंमें भी कितने विवेकशील हैं- - जैसे कि वे हमेशा ही रहे हैं -- ब्रिटिश भारतीय संघ केपके ढंगका प्रवासी कानून स्वीकार करने और नये विक्रेता-परवानोंके मामलेमें सर्वोच्च न्यायालय में अपील करनेका अधिकार रख कर पूरा नियन्त्रण सौंपनेको तैयार है । एक तरहसे इसका अर्थ भारतीयों द्वारा अपना व्यापारका अधिकार छोड़ना है। फिर भी संघने बिलकुल यही किया है । इसके बदलेमें संघ केवल अचल सम्पत्ति के स्वामित्वका अधिकार माँगता है । फिर भी हमें निश्चय नहीं है कि यह कोई नई बात होगी, क्योंकि यह एक प्रश्न है कि १८८५ के कानून ३ में स्वामित्व सम्बन्धी धारापर प्रहार किया जा सकता है या नहीं। संघने जबर- दस्ती अलग बसानेके सिद्धान्तका भी विरोध किया है और जैसा कि सर्वोच्च न्यायालयने सिद्ध कर दिया है, १८८५ के कानून ३ के अनुसार कोई जोर-जब वांछनीय नहीं है। इस हकीकतके होते हुए यदि सर आर्थर लाली अपने प्रस्तावोंको “रियायतें" बतायें और फिर श्री लिटिलटनसे कहें कि उनपर अमल करानेमें उन्हें कठिनाई हो सकती है तो यह दरअसल अजीब बात है ।असल बात यह है कि परमश्रेष्ठका प्रत्येक प्रस्ताव ब्रिटिश भारतीयोंकी स्वतन्त्रतापर नया प्रतिबन्ध है । परन्तु यदि ब्रिटिश भारतीयसंघ के आवेदनपत्रपर न्यायपूर्ण भावनासे विचार किया जाये तो सारा विवाद कमसे कम फिलहाल तो खतम हो सकता है और इंग्लैंडसे कोई खर्चीला आयोग भेजना गैर-जरूरी किया जा सकता है। अक्सर यह दलील दी जाती है कि स्वशासनभोगी उपनिवेशोंको कुछ कानून बनानेकी इजाजत दी गई है, यह देखते हुए ट्रान्सवालको भी उसी आधारपर रख दिया जाये। इसलिए हम संयोगवश इस हकीकतका जिक्र कर सकते हैं कि ब्रिटिश सरकार कहीं भी ऐसे असाधारण प्रस्तावोंसे सहमत नहीं हुई है जैसे सर आर्थर लालीने रखे हैं। यह याद होगा कि आस्ट्रेलियाने एशियाइयोंपर लागू करनेके लिए एक प्रवासी-कानून पास किया था। उस कानूनको विशेषाधिकार द्वारा रद करा दिया गया और उस उपनिवेशको नेटालके ढंगका एक सामान्य कानून पास करना पड़ा। स्वयं नेटालने जब एशियाइयोंके विरुद्ध विशेष कानून पास करनेका प्रयत्न किया तब उसे भी अपने प्रयत्नमें असफलता ही हुई थी। इसलिए यदि सर आर्थर लाली द्वारा प्रस्तावित कानून मंजूर किया ही गया तो ब्रिटिश अधिकारियोंकी तरफसे यह एक बिलकुल नये मार्गका अनुसरण होगा।

[ अंग्रेजीसे ]

इंडियन ओपिनियन, १०-९-१९०४