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२०७. उत्पीड़न-यंत्र

जहाँ ट्रान्सवालमें प्रवेश करनेवाले भारतीयोंपर परवाने-सम्बन्धी प्रतिबन्ध दिनपर-दिन कठोर होते जा रहे हैं, वहाँ यूरोपीयोंको अधिकाधिक सुविधाएँ दी जा रही हैं, फिर चाहे वे ब्रिटिश प्रजाजन हों या अन्य कोई । अब ऐसे अधिकारी नियुक्त किये गये हैं जो ज्यों ही जहाज आयेंगे त्यों ही उनमें चले जाया करेंगे ताकि जो यूरोपीय ट्रान्सवाल जाना चाहते हों उन्हें प्रतीक्षा किये विना परवाने मिल सकें। इसके विपरीत भारतीय चाहे केपमें हों, या नेटालमें या डेलागोआ-बेमें, प्लेगके आधारपर ट्रान्सवालमें प्रवेश करनेसे रोके जा रहे हैं। और यह सब होता है, इसका पूरा प्रमाण देनेपर भी कि वे शरणार्थी हैं। सबसे स्पष्ट उदाहरण, जो हमारी जानकारीमें आया है, किम्बरले और डर्बनसे आनेवाले फुटबॉलके भारतीय खिलाड़ी- दलोंसे सम्बन्धित है। हम यह सब पत्र-व्यवहार अन्यत्र छाप रहे हैं । उसको पढ़नेसे सारी बात स्वतः ही स्पष्ट हो जाती है। कार्यवाहक मुख्य सचिव यह नहीं समझ सके कि ब्रिटिश भारतीय खिलाड़ियों को अस्थायी परवाने क्यों दिये जायें ? यह स्मरणीय है कि ये सब प्रतिष्ठित लोग हैं और यूरोपीय ढंगसे रहनेका कोई महत्त्व हो तो यूरोपीय ढंग से रहते हैं। फुटबॉल एक प्रधान अंग्रेजी खेल है और हम समझते हैं कि श्री रॉबिन्सनके लिए उसका उल्लेख व्यंग्यपूर्वक करना उचित नहीं था, जैसा कि उन्होंने इस पत्र-व्यवहारमें किया है । भारतीय खिलाड़ियोंको श्री सी० बर्ड, मुख्य उपसचिवके प्रति बहुत ही कृतज्ञ होना चाहिए, क्योंकि उन्होंने परवाना- सचिवको एक आवश्यक तार भेजा था । किन्तु उसपर भी ट्रान्सवालके अधिकारियोंने कोई शिष्टता नहीं दिखाई। श्री बर्ड बहुत दृढ़ थे । उन्होंने कहा : “ नेटालके खिलाड़ी-दलमें सभी प्रतिष्ठित लोग हैं जो मुख्यतः मुन्शियोंका काम करते हैं और इनको जोहानिसबर्ग जाने देने में उससे अधिक खतरा मुझे दिखाई नहीं देता, जितना और किसीसे हो सकता है।” इससे ज्यादा कड़ाई से कुछ और कहना सम्भव न था । और चूंकि यह सिफारिश जिम्मेदार हलकोंसे हुई थी, इसलिए इसपर ध्यान देना उचित था । परन्तु कदाचित् ट्रान्सवालमें लोग मध्ययुगमें रह रहे हैं।

[ अंग्रेजीसे ]

इंडियन ओपिनियन, १०-९-१९०४