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स्वर्गीय श्री प्रिस्क

बाजार-सूचना ३५६ से हुआ था । हमें आशा है कि केपके ब्रिटिश भारतीयोंने इस घोषणाका विरोध किया होगा और वे तबतक चैन नहीं लेंगे जबतक यह रद न कर दी जाये या किसी असाधारण परस्थितिके आधारपर उचित सिद्ध न कर दी जाये। ऐसी घोषणाएँ कुल मिलाकर इतनी हुई हैं कि हम उनसे ऊब गये हैं और उनके विरुद्ध कोई कारगर उपाय भी दिखाई नहीं देता । अगर निर्धारित मार्गसे - जैसे विधान परिषद द्वारा - कानून पास करनेका सवाल होता तो अधिकार-पत्र के अधीन ब्रिटिश सरकारकी मंजूरी लेनी पड़ती; परन्तु जैसा इस मामले में हुआ है, घोषणा द्वारा कानून बनानेपर ऐसा कोई नियन्त्रण नहीं है । गवर्नर विधान मण्डलकी सहायता के बिना कारवाई करता है और उनके आदेशोंमें कानूनकी शक्ति होती है। ये घोष- णाएँ जारी होनेसे पहले ब्रिटिश सरकार ( डाउनिंग स्ट्रीट) के अधिकारियोंके सामने पेश नहीं की जातीं। इसलिये इसका अर्थ यह है कि कभी-कभी सम्राटसे सीधे नियन्त्रित इलाकों में भारतीयोंके उत्पीड़नके यन्त्रको कसना जितना आसान होता है उतना वहाँ नहीं, जहाँ उचित रूपसे निर्मित कानूनी संगठन है। यह एक सवाल है । हम इसे इंग्लैंडके उन राजनीतिज्ञोंके विचारार्थं प्रस्तुत करते हैं, जिन्हें भारत के बाहर ब्रिटिश भारतीयोंके दर्जेके साम्राज्यीय सवालमें दिलचस्पी है ।

[ अंग्रेजीसे ]

इंडियन ओपिनियन, १७-९-१९०४

२१०. स्वर्गीय श्री प्रिस्क

श्री प्रिस्ककी मृत्युने हमारे बीचसे एक विनम्र सत्पुरुष और बहुत ही योग्य पत्रकारको उठा लिया है । परलोकगत महानुभावने अपने विशिष्ट क्षेत्रमें शान्तिपूर्ण और निरभिमान तरीकेसे समाजके लिए बहुत कुछ किया था। पत्रकारका जीवन कभी सुख-चैनका जीवन नहीं होता । उसपर वे जिम्मेदारियाँ होती हैं जिनका शायद जनताको समुचित खयाल भी नहीं होता । एक तरफ तो उसे अपने मालिकोंको खुश रखना पड़ता है और दूसरी ओर लोकमतका प्रति- निधित्व करना होता है। ऐसा करनेमें उसे बड़ा त्याग करना पड़ सकता है। उसको अक्सर परस्पर- विरोधी स्वार्थोंसे निबटना पड़ता है और उसके सामने जो मामले आते हैं उनपर जनताके दृष्टिकोणसे ही नहीं, बल्कि अपने दृष्किोणसे भी विचार करना पड़ता है और जब उसके अपने ही शुद्ध अन्तःकरणसे मान्य विचार किसी खास मामलेमें लोकमतके विपरीत होते हैं तब स्थिति बड़ी नाजुक हो जाती है । किन्तु श्री प्रिस्क पत्रकारोंके रास्ते में आनेवाली सभी विघ्न-बाधाओंको सुरक्षित रूपसे पार कर जाते थे और अपना कर्त्तव्य दृढ़तासे पालते थे । हमें अच्छी तरह याद है कि जब नेटालमें भारतीय अकाल-पीड़ितोंके लिए चन्दा शुरू किया गया था तब उन्होंने किस उत्साहवर्धक ढंगसे हमारी सहायता की थी। हमारे अनेक पाठकोंको उन विशेष व्यंग्य - चित्रोंका स्मरण होगा जो नेटाल मर्क्युरीमें परिशिष्टांकके रूपमें निकाले गये थे और यह भी स्मरण होगा कि उस अखबार में अकाल-सम्बन्धी साहित्यको कितना अधिक स्थान दिया गया था । हम श्री प्रिस्कके परिवारके प्रति अपनी आदरपूर्ण समवेदना प्रकट करते हैं और आशा रखते हैं कि उनका कार्य योग्य व्यक्तिको सौंपा जायेगा ।

[ अंग्रेजीसे ]

इंडियन ओपिनियन, १७-९-१९०४