हमारे सहयोगी नेटाल ऐडवर्टाइज़रने सर आर्थर लालीके नेटाल-सम्बन्धी इस वर्णनका खण्डन किया है कि "ज्यों ही कोई नेटालकी सीमाको लांघता है, उसका यह खयाल मिट जाता है कि वह एक यूरोपीय देशमें ही यात्रा कर रहा है।" हमारा सहयोगी इसे "अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन" बताता है और हम भी उसके इस भावको प्रतिध्वनित किये बिना नहीं रह सकते। पाइनटाउन और चार्ल्सटाउनके बीचके रेलवे स्टेशनोंके सिवा आपको मुख्य लाइनपर बहुत थोड़े भारतीय चेहरे दिखाई देंगे और अगर आपको स्टेशनोंपर कुछ कुली दिखाई देते हैं तो इसका कारण यह है कि रेलवेके अधिकारियोंको गिरमिटिया भारतीय मजदूर रखनेमें सुभीता रहता है। इसलिए यदि यह कोई बुराई है तो उपनिवेशने इसे स्वयं ही स्वीकार किया है और परम-श्रेष्ठके तिरस्कार करने पर भी वह ऐसा करता रहेगा।
दादाभाई नौरोजीको जो यह बयान भेजा गया था कि “एशियाई बाजारोंकी जगहें व्यापारके लिए बिलकुल निकम्मी हैं' उसपर श्री लिटिलटनने निश्चित सम्मति माँगी थी। परमश्रेष्ठने इस मामलेको कुछ ही पंक्तियोंमें इस तरह टाल दिया है:
ब्रिटिश भारतीय संघका कहना है कि ये जगहें बिलकुल अनुपयुक्त हैं। परन्तु मेरी रायमें उसने अपना पक्ष प्रस्तुत करनेमें अत्युक्ति की है। नगर निवासियोंने जो आपत्तियाँ उठाई हैं वे भी अयुक्तिसंगत हैं। मेरे खयालसे चुनाव अच्छा हुआ है।
हम कहना चाहते हैं कि परमश्रेष्ठने अधिकांश नये स्थानोंको देखा नहीं है। ब्रिटिश भारतीय संघने आरोप दुहराया है और कमसे कम यह बात बहुत अन्यायपूर्ण है कि परमश्रेष्ठ उन स्थानोंको देखे बिना ही ऐसा बयान दें जैसा उन्होंने दिया है। यह उन प्रत्यक्षदर्शियोंकी गवाहीके खिलाफ है जो अपने नगरोंके प्रतिष्ठित यूरोपीय व्यापारी या डॉक्टर हैं और निष्पक्ष निर्णय देनेके लिए सर्वथा अधिकारी हैं। ये लोग हैं जिन्होंने अधिकांश स्थानोंको व्यापारके लिए बिलकुल अयोग्य और सफाईके खयालसे भी प्रायः अनुपयुक्त कहकर निकम्मा करार दिया है। कुछ भी हो, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि किसी एक उदाहरणमें भी बाजारोंके लिए सड़कें या मुहल्ले निर्धारित नहीं किये गये हैं, बल्कि हर जगह बस्तियाँ अलग कर दी गई हैं और उन्हें बाजारोंका गलत नाम दे दिया गया है। अगर हमने परमश्रेष्ठके खरीतेपर फिर कुछ विस्तारसे चर्चा की है तो यह दिखाने के लिए ही कि राज्यके प्रधान द्वारा स्थितिके बारेमें पक्षपातपूर्ण रुख इख्तियार कर लेनेके कारण भारतीयोंकी स्थिति कितनी विषम हो गई है। अभीतक महत्त्वपूर्ण बातचीत चल रही है। प्रश्नका निर्णय नहीं हुआ है और हम इस हकीकतपर जोर देना ठीक समझते हैं कि ब्रिटिश भारतीयोंने कभी स्थिति के बारेमें अतिशयोक्ति नहीं की है और जहाँ-कहीं उनसे बन पड़ा है उन्होंने यूरोपीयोंकी भावनाके सामने झुकनेकी रजामन्दी दिखाई है।
इंडियन ओपिनियन, २४-९-१९०४