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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

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(४) अपने मित्रों अथवा मुख्तियारोंके द्वारा अर्जी देनेपर अर्जदारोंको अस्थायी प्रवेशपत्र दे दिये जाते थे।

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(४) अब यह आग्रह रखा जाता है कि अर्जदार खुद हाजिर होकर अर्जी दे।

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(५) कानून इस बारेमें कुछ नहीं कहता था कि अपनी पांच सालकी गिरमिटकी अवधि-भर उपनिवेशकी सेवा कर चुकनेवाला गिरमिटिया मजदूर उपनिवेशका निवासी माना जायेगा या नहीं।

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(५) जहाँतक कानूनसे सम्बन्ध है, इस तरह पाँच वर्षतक उपनिवेशमें जो रह चुका है वह उपनिवेशका बाशिन्दा नहीं माना जायेगा।

इस तरह इस विधेयकके खिलाफ ब्रिटिश भारतीयोंके युक्तिसंगत आपत्ति करनेपर भी पाँच आवश्यक बातोंमें उपनिवेशके कानूनमें नियन्त्रण अधिक सख्त बना दिये गये हैं और इसका भी कोई भरोसा नहीं कि अब आगे और कुछ नहीं होगा।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ८-१०-१९०३

२. श्री वायबर्ग और एशियाई मजदूर

ट्रान्सवालके खान-आयुक्त श्री वायबर्गको श्रम-आयोगके समक्ष दी गई गवाही अबतकके गवाहों द्वारा प्रयुक्त भूमिकाकी अपेक्षा अधिक ऊँची भूमिकापर स्थित है, और यद्यपि वे विधानपरिषदके सदस्य हैं, फिर भी उन्होंने कुछ खरी-खरी बातें कहने में संकोच नहीं किया है। ट्रान्सवालमें एशियाई मजदूरोंको लानेके कट्टर और अथक विरोधी श्री क्विनके प्रश्नोंके जवाबमें उन्होंने जो बातें कहीं, उनमें से कुछ अत्यन्त प्रभावकारी बातें हम नीचे दे रहे हैं।

श्री वायबर्गने कहा :

खानोंमें अकुशल गोरे मजदूरोंसे काम लेनेके जो प्रयोग हुए हैं उनके बारेमें मुझे प्रत्यक्ष कोई जानकारी नहीं है; परन्तु मैं इस विवादका बहुत दिलचस्पीके साथ अध्ययन करता रहा हूँ। गोरे मजदूरोंके उपयोगके बारेमें मेरी राय इस प्रसिद्ध लोकोक्तिमें आ गई है कि 'जहाँ चाह है वहाँ राह भी है'। अगर गोरे मजदूरोंके उपयोगकी इच्छा लोगोंमें बहुत प्रबल हो तो मुझे मानना ही पड़ेगा कि वैसा होकर रहेगा। मैं तो इसे मुख्यतः एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण राजनीतिक प्रश्न समझता हूँ। यह सब इसपर निर्भर है कि हम किस नीतिपर चलना चाहते हैं।

इस प्रश्नका निर्णय पूर्णतः खानोंके मालिकोंको करना है कि खानोंमें गोरे मजदूरोंसे काम लिया जाये, या स्थानीय अथवा बाहरके रंगदार जातिके मजदूरोंसे। वे अपने