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श्री वायवर्ग और एशियाई मजदूर

इंजीनियरोंसे कह दें, 'हम चाहते हैं कि आप गोरे मजदूरोंको लानेका पूरा प्रयत्न करें और उनसे अधिकसे-अधिक और अच्छेसे-अच्छा काम किस तरह लिया जाये यह जो बतायेगा उसे खूब इनाम दिया जायेगा।' अगर मालिक ऐसा करें तो मेरा खयाल है, गोरे मजदूरोंसे काम लेनेकी जोरोंसे कोशिशें होने लगेंगी और इसमें सफलता भी मिलने लगेगी। इसके विपरीत, अगर खान-मालिक यह कहते रहेंगे, 'हम गोरे मजदूरोंको पसन्द नहीं करते' तो मेरा खयाल है, इंजीनियर कभी गोरे मजदूरोंको लानेका प्रयत्न करने और उसे सफल बनानेकी पर्याप्त प्रेरणा नहीं पायेंगे और इंजीनियरके रूपमें उन्हें ऐसी प्रेरणा मिलनी भी नहीं चाहिए।

श्री व्हाइटसाइडके जवाबमें श्री वायबर्गने आगे कहा :

लड़ाईसे पहलेके दिनोंमें सार्वजनिक कामोंमें मुझे बहुत दिलचस्पी थी और किसी समय मैं दक्षिण आफ्रिकी संघका अध्यक्ष भी था। संघकी नीति यह थी कि जितने भी अधिक अंग्रेजोंको ट्रान्सवालमें लाया जा सके, लाना चाहिए। मेरी, और मैं समझता हूँ, हर अंग्रेजको, तब यही नीति थी। इस बारेमें कहीं दो राय हो ही नहीं सकती थी कि अंग्रेजोंको यहाँ आकर बसनेके लिए जितना अधिक प्रोत्साहन दिया जा सके, देना चाहिए। यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण थी। मैं समझता हूँ कि देशके हर वफादार आदमीका उद्देश्य यही होना चाहिए। परन्तु वफादार और गैर-वफादारकी बात अभी छोड़ दीजिए। मैं तो कहता हूँ कि अगर हम दक्षिण आफ्रिकाको कैनडा और आस्ट्रेलियाकी भाँति, जो गोरोंके देश हैं, साम्राज्यका महत्त्वपूर्ण भाग बनाना चाहते हैं तो हमको यही करना चाहिए। नहीं तो इसकी भी स्थिति जमैका, ब्रिटिश गियाना अथवा उष्ण कटिबन्धके समीपस्थ अन्य देशोंकी जैसी हो जायेगी, जहाँ गोरे काम लेनेवाले मालिक हैं और अधिकांश असली निवासी गुलामोंसे कुछ ही अच्छे हैं। हमें इस स्थितिसे बचना चाहिए। इस दृष्टिसे यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि यहाँ अधिकांश आबादी गोरोंकी हो जाये और ये गोरे ऐसे हों जो अपना सारा काम खुद करें। यह रुख बड़ा पतनकारी है कि अगर हमको दक्षिण आफ्रिकामें रंगदार मजदूर काफी नहीं मिलते तो हम इनकी पूर्ति किसी दूसरे जरियसे कर लें।

श्री वायबर्गके इन प्रभावकारी वाक्योंसे स्पष्ट हो जाता है कि उनकी रायमें एशियासे लाये जानेवाले गिरमिटिया मजदूरोंकी स्थिति गुलामोंसे कुछ ही अच्छी होगी। वे सरकारी सहायतासे एशियासे मजदूर लानेका जो विरोध कर रहे हैं उसका एक आधार यह भी है। अब, यह रुख ऐसा है जिसपर किसी भी समझदार आदमीको आपत्ति नहीं हो सकती। हम तो यही आशा करते हैं कि उनकी गवाही महत्त्वपूर्ण समझी जायेगी और जो सज्जन उचित और अनुचितका विचार छोड़कर केवल अपने लाभकी खातिर एशियाई मजदूरोंका शोषण करनेके लिए उत्सुक है, उनके मनसूबे विफल कर दिये जायेंगे। स्पष्ट ही श्री वायबर्ग एक सिद्धान्तप्रिय पुरुष हैं और अपने सिद्धान्तोंके इतने पक्के हैं कि वे धन लेकर भी स्वार्थी वर्गोंके दबावका मुकाबला कर सकते हैं, क्योंकि श्री क्विनने उनसे यह तथ्य उगलवा लिया कि उन्हें संयुक्त स्वर्णखान (कांसालिडेटेड गोल्डफील्ड्स) को इसीलिए छोड़ना पड़ा। खान-मालिक श्री वायबर्गसे अपेक्षा करते थे कि वे अपने राजनीतिक विचारोंको दबा दें, या बदल दें। एक दिलचस्प बात और भी ध्यानमें रखने लायक है—श्री वायबर्ग यह नहीं मानते कि यहाँ देशी मजदूरोंकी किसी प्रकार