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२२२. एक बेअंग्रेजियत अंग्रेज मजिस्ट्रेट

एक विश्व यात्री, जो अपनेको “एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट" कहते हैं, नेटालमें भ्रमण कर रहे हैं। उन्होंने नेटाल मर्क्युरीके द्वारा जनताके सामने अपने संस्मरण पेश किये हैं। प्रशंसात्मक स्वरमें डर्बनका वर्णन करनेके बाद “एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट" कहते हैं:

लेकिन इसके बावजूद अपनी दृष्टिसे देखनेपर डर्बनकी जानकारीके साथ-साथ मुझे एक-दो खेदजनक बातोंकी जानकारी भी हुई है। इस गोरोंके शहरमें भारतीयों और अरबोंको इतना प्रमुख स्थान कैसे प्राप्त हो गया? अवश्य ही वे हमारी तरह सम्राटके प्रजाजन हैं, परन्तु फिर भी गोरा गोरा ही है और काला काला ही। कह नहीं सकता, यह कहानी है या सत्य-किन्तु मुझे बताया गया है कि डर्बनके एक अत्यन्त भव्य भण्डारका मालिक अपने कोनेपर स्थित एक छोटे अरब सौदागरकी दूकानको सम्मानपूर्वक प्राप्त करना चाहता था। उसने अपने वकीलको यह पूछनेके लिए भेजा कि क्या वह उसका व्यवसाय खरीद सकता है और यदि हाँ, तो किस कीमत पर। अरबने उत्तर दिया कि अभी उसको इच्छा अपना कारोबार बेचने की नहीं है, परन्तु यदि पड़ोसी अपनी दूकानकी कीमत बताये तो वह उसे खरीदने के बारेमें तुरन्त विचार करेगा।

दूसरी बात जिसपर लेखक खेद प्रकट करता है, यह है कि डर्बनकी पुलिसमें काफिर क्यों रखे जायें। अगर यात्रीने डर्बनके इतिहासकी काफी पूछ-ताछ की होती तो शायद उन्हें पता चल गया होता कि जैसा वे कहते हैं, डर्बन यद्यपि गोरोंका शहर है, फिर भी भारतीयोंकी उपस्थितिसे ही वह सुन्दर और भव्य बना है। उन्हें मालूम हो गया होता कि “एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट” जैसे यात्रियोंको जीवनकी सारी आधुनिक सुविधाएँ प्राप्त हो सकें, इसलिए डर्बन नगर-निगम गिरमिटिया भारतीयोंको एक बहुत बड़ी संख्यामें नौकर रखता है। अब रही दूसरी खेदजनक वात। बेचारे काफिर सिपाहीके बचाव में हम यह कहे बिना नहीं रह सकते कि उसीकी उपस्थितिसे डर्बन अपराधोंसे अपेक्षाकृत अधिक मुक्त है। इसका कारण यह नहीं कि काफिर पुलिस यूरोपीय पुलिससे अधिक दक्ष है, बल्कि यह है कि नगर कम वेतन के काफिरोंको नियुक्त न करे तो उसके लिए आवश्यक संख्या में पुलिस रखना असम्भव है। नगरकी पुलिसमें भारतीय और काफिर न होते तो शायद डर्बन ही न होता—फिर चाहे वह गोरोंका हो या कालोंका। तब ऐसी अब्रिटिश ईर्ष्या क्यों? अथवा दक्षिण आफ्रिकाके जलवायुमें ही कुछ ऐसा तत्त्व छिपा हुआ है, जिसके प्रभावसे मनुष्य अपनी परम्पराओंको भूल जाता है?
[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १-१०-१९०४