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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/३२५

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२२३. पत्र : गो० कृ० गोखलेको

२१-२४ कोर्ट चेम्बर्स
नुक्कड़,रिसिक व एंडर्सन स्ट्रीट्स
पो० ऑ० बॉक्स ६५२२
जोहानिसबर्ग
अक्टूबर ३, १९०४

प्रिय प्रोफेसर गोखले,

आपकी व्यस्तता जानने के कारण मैंने जानबूझकर आपको समय-समय पर नहीं लिखा है, किन्तु कांग्रेस अधिवेशनकी निकटताके कारण अब ऐसा करना सम्भव नहीं है और में परिस्थितिके सम्बन्ध में लंदन में प्रकाशित सरकारी रिपोर्टकी एक प्रति इसके साथ भेज रहा हूँ। यह केवल ट्रान्सवालके बारेमें है और सारा जोर ट्रान्सवालकी स्थितिकी ओर ही लगाना है। समस्त आशाओंके विपरीत लॉर्ड मिलनर, जो युद्ध प्रारम्भ होनेके समय ब्रिटिश भारतीय और अन्य पीड़ितों के पक्षपाती थे, एकदम उलट गये हैं। यह उनके खरीतेसे स्पष्ट है। युद्धके पहले ट्रान्सवालमें भारतीयोंको जो थोड़े-बहुत अधिकार प्राप्त थे, उनसे भी वे उन्हें वंचित करनेके लिए बिलकुल तैयार हैं। मैं खरीतोंके उत्तरमें ब्रिटिश भारतीय संघका आवेदन नत्थी कर रहा हूँ। इससे प्रकट होगा कि भारतीय किस सीमातक जानेके लिए उद्यत हैं। उसमें आप देखेंगे कि वे अचल सम्पत्तिपर अधिकारके बदलेमें भारतीय प्रवासपर प्रतिबन्ध और स्थानीय अधिकारियों द्वारा परवानोंका नियमन माननेके लिए राजी हैं, जो यूरोपीयोंकी लगभग समूची माँग है। चूँकि सरकार भेदपूर्ण विधानके सिद्धान्तको प्रतिष्ठित करना चाहती है, मुझे भय है कि केवल इसीलिए प्रस्ताव ठुकरा दिया गया है। ब्रिटिश भारतीय संघका यह कथन है कि विधान जैसा भी हो, सबपर लागू होना चाहिए। ट्रान्सवाल सरकार ऐसा नियम बनाना चाहती है जो सिर्फ एशियाइयोंपर——भले ही वे ब्रिटिश प्रजा हैं, या नहीं हैं–लागू हो। जैसा कि आप जानते हैं, ऐसा विधान बनानेकी अनुमति स्वशासित उपनिवेशोंको भी नहीं दी गई है, उदाहरणार्थ, केप और नेटाल; यद्यपि इन दोनों जगहों में सरकारने ऐसा विधान बनानेका विचार किया था। सरकारी रिपोर्टमें सर मंचरजीके आवेदन (वक्तव्य–क) में तीन पौंडका पंजीयन शुल्क वार्षिक बताया गया है। वास्तवमें वह एक ही बार दिया जाता है। .परवानोंके बारेमें, परीक्षात्मक मुकदमेके[] बादसे भारतीयों और यूरोपीयोंकी स्थिति एक हो गई है । फोटोदार पासोंका चलन खत्म कर दिया गया है। ऑरेंज रिवर कालोनीमें कानून अत्यधिक कड़ा है और अभीतक उसे हटाने के लिए कुछ नहीं किया गया है। नटालमें विक्रेता-परवाना अधिनियम बहुत अधिक कठिनाई उत्पन्न कर रहा है। वह स्थानीय अधिकारियोंको मनमानी ताकत देता है किन्तु सर्वोच्च न्यायालयमें अपीलका अधिकार नहीं देता। मुझे आशा है कि आप इंडियन ओपिनियन पढ़ते रहे हैं जो एकदम ठीक-ठीक जानकारी देता है।

  1. हबीब मोटन बनाम ट्रान्सवाल सरकार : देखिए "सुयोग्य विजय", मई १४, १९०४ ।