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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सकते हैं कि शायद ही किसी मामलेमें एक ही आदमीपर दुबारा मुकदमा चलाया गया होगा। सफाई-दारोगोंने दक्षिण आफ्रिकाभरमें यह बात जोर देकर कही है कि भारतीय सीधे होते हैं। और कानूनी आज्ञाओंके पालनके लिए तैयार रहते हैं। समिति कहती है: हालमें हुए प्लेगके प्रकोपसे और उससे सम्बन्धित घटनाओंसे यह साबित हो गया है कि खुद शहरके भीतर स्थित बस्तीका कारगर तौरपर पृथक्करण मुश्किल है।" किन्तु डॉ० पेक्सने अपनी रिपोर्टमें कहा है। कि भारतीय बस्तीके गिर्द सफलतापूर्वक घेरा डाल कर प्लेग जड़से मिटा दिया गया। इसलिए या तो उनका कहना गलत था या लोक-स्वास्थ्य समितिका कहना गलत है। डॉ० पेक्सको उनके शानदार कामपर बधाई दी गई है। और अब यह अप्रत्यक्ष अर्थ लगाना उनका अपमान करना है कि नगर के भीतर स्थित होनेके कारण बस्तीका कारगर तौरपर पृथक्करण असम्भव था। हम लोक-स्वास्थ्य समितिके इस लापरवाहीसे दिये गये बयानका भी खण्डन करते हैं कि भारतीय खास तौरपर चेचकके शिकार होते हैं। नेटालका अनुभव बताता है कि बात ऐसी नहीं है। और प्लेग के बारेमें भी हमें इस आरोपपर बहुत आपत्ति है कि "भारतीयोंको अवश्य ही प्लेग अधिक होता है।" प्लेग, जो भारतीय बस्ती में शुरू हुआ और जिसके लिए लोक स्वास्थ्य समिति ही जिम्मेदार थी, उस बस्तीतक ही सीमित रहा और यदि उस बस्तीके बीमारोंकी संख्याको निकाल दिया जाये तो पता चलेगा कि भारतीय दूसरोंकी अपेक्षा प्लेगके अधिक शिकार नहीं हुए। लोक-स्वास्थ्य समितिका अन्तिम कारण-गरीब गोरों और गरीब भारतीयोंके बीच सामाजिक सम्पर्क-एक तुच्छ तर्क है। प्रथम तो दोनोंमें बिलकुल कोई सामाजिक सम्पर्क नहीं है। दूसरे, हम यह जानना चाहेंगे कि गोरोंके सामाजिक ह्रासमें भारतीयोंकी उपस्थितिसे क्या मदद मिली है; भारतीय समाजका कौनसा खास दोष है जो गोरोंने पिछले १७ वर्षोंमें उनसे ग्रहण किया है। और दोनों वर्गोंके साथ-साथ रहनेकी घटना किसी भी तरह जोहानिसबर्गके लिए विशेष नहीं है। वे केप टाउन, किम्बरले, डर्वन, मॉरिशस, लंका और भारतमें साथ-साथ रहते रहे हैं। भारतीयोंके विरुद्ध यह आरोप कहीं भी नहीं लगाया गया; कहीं भी भारतीयोंको बिलकुल अलग रख देनेके पक्ष में यह दलील नहीं दी गई। इससे अच्छा तो यही होगा कि इस तरह धीरे-धीरे उत्पीड़नके बजाय, जैसा कि लोक स्वास्थ्य समितिने प्रस्ताव किया है, एक बार हो कानून बनाकर भारतीयोंको हमेशा के लिए जोहानिसबर्गके बाहर निकाल दिया जाये। यहाँ रहनेवाली आबादी के साथ या तो अच्छा बरताव किया जाये या उसे इस देशसे खदेड़ दिया जाये। उनको देशसे निकालने की कार्रवाई सख्त तो होगी, लेकिन वह संखियाका जहर जैसा देकर धीरे-धीरे, किन्तु निश्चित रूपसे प्राण लेने की क्रियाकी अपेक्षा कहीं अधिक सदय होगी। और यह जहर है, समाजको उसकी प्रवृत्तियोंके क्षेत्रसे मीलों दूर एक बाड़े में खदेड़ देना और फिर पोषण के अभाव में मरने देना।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ८-१०-१९०४