२२५. विक्रेता-परवाना अधिनियम
नेटाल परवाना अधिनियम अभीतक नेटालके भारतीय दूकानदारोंके सिरोंपर डेमाक्लीजकी तलवारकी तरह लटक रहा है। जबतक यह अ-ब्रिटिश विधि उपनिवेश विधि संहिताको कलंकित कर रही है तबतक भारतीय दुकानोंका व्यापारिक सम्पत्तिके रूपमें कोई मूल्य नहीं है। श्री हुंडामलको, जो बड़े पुराने व्यापारी हैं और जिनका सारा व्यापार ऊँचे तबकेके यूरोपीयोंमें है, डर्बनके एक प्रमुख बाजारकी दूकान खाली करनेकी सूचना दी गई। वे वेस्ट स्ट्रीटकी दूसरी दूकान में चले गये। अगले ३१ दिसम्बरतक व्यापार करनेका बदस्तूर परवाना उनके पास है। इसलिए परवाना अधिकारी द्वारा स्थान परिवर्तनका पंजीयन करनेतक उन्होंने व्यापार बन्द नहीं किया। अधिकारीने स्थान परिवर्तनके पंजीयनसे इनकार कर दिया। तब भी वे व्यापार करते रहे और उन्होंने अपीलकी सूचना दायर की। न्यायालय में ऐसी सूचना, स्थितिको जैसा-का-तैसा छोड़ देती है। किन्तु परवाना-अधिकारीको निरंकुश सत्ता है; श्री हुंडामलका व्यापार जारी रखना उसे अपनी शानके खिलाफ लगा। इसलिए उसने उन्हें न्यायाधीशके सामने पेश किया। हमारी विनम्र रायमें न्यायाधीशने एकदम अनुचित निर्णय किया कि प्रतिवादीने अधिकारियोंकी उपेक्षा करके व्यापार जारी रखा है और उसपर २० पौंडका अधिकतम जुर्माना कर दिया। अपील दायर की गई है और इसलिए हम इस असाधारण निर्णयपर और कुछ कहनेसे अपनेको रोक रहे हैं। हम इतना ही कहेंगे कि यदि निर्णय सही है तो सम्राटकी किसी भी प्रजाको देशके कानूनपर अपनी समझ के अनुसार चलनेका साहस नहीं हो सकता। हम सरकारका ध्यान इस ओर आक-र्षित करते हैं क्योंकि यह उदाहरण बताता है कि जबतक कानून नहीं बदला जाता तबतक नेटालके गरीब भारतीय व्यापारियोंको चैन नहीं मिल सकता।
इंडियन ओपिनियन, ८-१०-१९०४
२२६. प्रीतिभोजमें भाषण
यह उद्धरण गांधीजी और डर्बनके भारतीय समाजके अन्य नेताओंके सम्मानमें दिये गये एक प्रीतिभोजके विवरणसे लिया गया है:
[ अक्टूबर १०, १९०४ ]
श्री गांधीने आत्म-बलिदानका विवेचन करके जापानके सम्राट और लोगोंका उदाहरण देकर बताया कि किसी भी राष्ट्रकी उन्नति उसके व्यक्तियोंके आत्मत्यागपर आधारित है। उपस्थित सज्जनों द्वारा इस विषयपर कुछ प्रश्न पूछे जाने पर उन्होंने उनका खुलासा भी किया।
इंडियन ओपिनियन, १५-१०-१९०४