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२२७. हुंडामलका परवाना

इस सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मुकदमेका अभीतक फैसला नहीं हुआ है। हमने अपने पिछले अंकमें इसके विषयमें लिखा था[१]; तबसे अबतक वह दूसरे दौर में पहुँच गया है। यह स्मरणीय है कि प्रतिवादी हुंडामलपर जब न्यायाधीशके सामने परवानेके बिना व्यापार करनेका आरोप लगाया गया तो उसने दर्खास्त की कि इस मामलेको तबतक स्थगित कर दिया जाये जबतक नगर परिषद उसकी अपीलका फैसला नहीं कर देती; किन्तु वह व्यर्थं गई। श्री हुंडामलने अपना परवाना ग्रे स्ट्रीटसे वेस्ट स्ट्रीटमें बदलनेकी प्रार्थना की थी, जो परवाना अधिकारीने नामंजूर कर दी थी। उक्त अपील उसी नामंजूरीके विरुद्ध थी। शुक्रवार ७ अक्तूबरको अपील सुनी गई और रस्मी सुनवाईके स्वांग और प्रार्थीकी ओरसे श्री बिन्सके सुन्दर भाषणके बाद खारिज कर दी गई। परवाना अधिकारीने अपनी इनकारीके ये दो संवव दिये कि प्रार्थीके पास पहलेसे ही पाँच परवाने हैं और वेस्ट स्ट्रीटमें एशियाई व्यापारियोंकी संख्या में वृद्धि करना अभीष्ट नहीं है। मालिकोंकी नौकरी बजाने के उत्साहमें परवाना अधिकारीने जो मिथ्याचार करना उचित समझा उसका श्री बर्नने, जो परिषदके एकमात्र वकील सदस्य हैं, हिम्मतके साथ परदा फाश किया। वे परवाना-अधिकारीसे यह कबूल करा सके कि पाँच परवाने दूकानोंके परवाने नहीं, फेरीके परवाने थे। जब यह पूछा गया कि इस बातका उल्लेख कारण वक्तव्यमें क्यों नहीं किया गया तो परवाना अधिकारीने कहा कि उसे इसकी जरूरत महसूस नहीं हुई। श्री बर्नका विचार है कि ऐसे महत्त्वपूर्ण तथ्यके उल्लेखको छोड़ने में परिषद और जनताको गुमराह करनेके प्रयत्नकी तीव्र गंध आती है। परवाना अधिकारीने जो दूसरा कारण दिया, हम अत्यन्त विनम्र भावसे कहते हैं कि वह कम लज्जाजनक नहीं था। वेस्ट स्ट्रीटमें लगभग १०० यूरोपीय भण्डारोंके मुकाबिलेमें भारतीय भण्डार केवल आठ हैं। इसलिए यदि यह केवल अनुपातका प्रश्न हो तो यह कहना बहुत कठिन है कि उस सड़क-पर भारतीय परवानोंपर सम्पूर्ण निषेध लागू करनेकी घड़ी आ गई है। किन्तु परिषदके सामने श्री बिन्सने जो तथ्य असन्दिग्ध रूपसे सिद्ध किये उनसे स्पष्ट होता है कि इस मामलेमें कितनी बेदर्दीसे बेइन्साफी की गई है और कितने खुले तौरपर प्रश्न जातीय आधारपर तय किया गया है। क्योंकि यह प्रमाणित कर दिया गया है कि प्रार्थीने सन् १८९५ से जब-तब डर्बनमें व्यापार किया है, वह भारतीय और जापानी रेशम तथा नफीस चीजें बेचता है, इस व्यापारकी यूरोपीय भण्डारोंसे स्पर्धा नहीं है, उसकी सारी ग्राहकी यूरोपीयों और सो भी ऊँचे तबकेके यूरोपीयों में है, जिस मकान या जायदादपर उसका कब्जा है, वह सुन्दरता और स्वच्छताकी दृष्टिसे सर्वथा ठीक है, वह स्वयं संस्कृत है और भारतीय समाजमें ऊँचा दर्जा रखता है, लगभग एक दर्जन यूरोपीय पेढ़ियोंने उसे इस विवादास्पद क्षेत्रमें व्यापार करनेकी अनुमति पाने के योग्य और हर तरह ठीक व्यक्ति कहा, चालीससे अधिक यूरोपीय सज्जनोंने उसके आवेदनका जोरदार समर्थन किया। यह प्रमाणित किया गया कि वह वेस्ट स्ट्रीटमें व्यापार करता भी था, किन्तु पट्टेकी अवधि समाप्त हो जाने और मालिकको स्वयं मकानकी जरूरत होने के कारण उसे वह छोड़ना पड़ा था। अतः जीविकोपार्जनका अवसर छीने जानेका एकमात्र आधार उसकी चमड़ीका रंग हुआ। हमें आश्चर्य नहीं कि श्री बिन्सने इसका आवेगयुक्त विरोध किया कि जो बात किसी यूरोपीयमें होनेपर

  1. देखिए "विक्रेता-परवाना अधिनियम,” अक्टूबर ८, १९०४