२३४. नेटाल परवाना कानून
श्री हुंडामलका मामला अब केवल व्यक्तिगत प्रश्न नहीं समझा जा सकता; वह ऐसा मामला है जिसमें व्यापक हित निहित हैं। जबतक यह लेख छपेगा तबतक मजिस्ट्रेटके फैसलेके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में की गई अपीलका फैसला शायद हो जायेगा। परन्तु पिछले सप्ताहकी कार्रवाईपर मामूली नहीं, अधिक ध्यान देनेकी जरूरत है। नगर परिषदके निर्णयके बावजूद, परन्तु वकीलोंकी प्रमुख फर्मकी कानूनी सलाहके अनुसार, श्री हुंडामल नगरमें व्यापार करनेके लिए दिये गये परवानेके बलपर कारोबार चलाते रहे। इसलिए परवाना अधिकारीने उनके नाम फिर सम्मन जारी किया और उनपर वेस्ट स्ट्रीटके मकान के सम्बन्धमें परवानेके बिना व्यापार करनेका अभियोग लगाया। अभियुक्तने अपीलकी सुनवाई होनेतक कार्रवाई स्थगित रखनेकी अर्जी दी। मजिस्ट्रेटने वह स्वीकार कर ली और अभियोक्ता-पक्ष के इस कथनको नहीं माना कि अभियुक्त अदालतका अपमान करके व्यापार कर रहा है। फिर भी मजिस्ट्रेटने एक अत्यन्त असाधारण आदेश दिया कि अगर अभियुक्त व्यापार करनेकी अनुमति प्राप्त न कर ले तो उसकी दूकान जबरदस्ती बन्द कर दी जाये।
इसलिए जो चीज उन्होंने एक हाथसे दी उसे दूसरे हाथसे छीन लेनेकी कोशिश की; क्योंकि अगर दूकान बन्द ही करनी थी तो कार्रवाईको स्थगित करनेका क्या महत्त्व हो सकता था? यदि मजिस्ट्रेटको सर्वोच्च न्यायालयके फैसलेके बारेमें इतना यकीन था तो उन्होंने कार्र-वाई स्थगित ही क्यों की? परन्तु यह मुद्दा महत्त्वपूर्ण होते हुए भी इस प्रश्नके सामने महत्त्व-हीन हो जाता है कि मजिस्ट्रेटने जो आदेश दिया उसको उसे देनेका कोई अधिकार भी था या नहीं। हमें मालूम हुआ है कि श्री हुंडामलके वकीलोंने मजिस्ट्रेटको लिखित सूचना दी है कि उन्होंने अपने अधिकारसे बाहर काम किया है और अगर दूकान जबरदस्ती बन्द कर दी गई तो उसके लिए वे व्यक्तिशः जिम्मेदार होंगे। हमारा सदा यह खयाल रहा है कि श्री स्टुअर्ट एक निष्पक्ष, गम्भीर और न्यायपरायण न्यायाधीश हैं। परन्तु हमें बड़े आदरके साथ कहना पड़ता है कि उन्हें जो अधिकार प्राप्त हैं, उनके सम्बन्ध में उनके ज्ञानपर हमारा विश्वास बहुत हिल गया है। हम यह कल्पना नहीं कर सकते कि उन्होंने यह काम, जो हमारी नम्र राय में निर्णयकी एक गम्भीर भूल है, जानबूझकर किया है। क्योंकि, अगर उनके फैसलेपर अमल किया जाये तो उसका असर यह होगा कि हम फिरसे उस मध्य युगमें पहुँच जायेंगे, जिसमें प्रजाजनों की स्वतन्त्रता केवल न्यायाधीशोंकी सनकपर निर्भर रहती थी, और उन न्याया-धीशोंके अधिकार और सत्ता केवल उनकी सद्बुद्धिसे ही मर्यादित होते थे।
किन्तु महान् नगर परिषद और एक छोटेसे नागरिकके बीच यह अशोभनीय भाव क्यों होना चाहिए? थोड़े दिनतक उस गरीब व्यापारीको न छेड़ा जाये तो, अवश्य ही, इसमें किसी सिद्धान्तको खतरा नहीं है। रोज चन्द शिलिंग की बिक्री करके वह उतने ही समय में वेस्ट स्ट्रीटके दूसरे व्यापारियोंकी आमदनी बहुत नहीं घटा सकता। उन्होंने उसके विरुद्ध कोई ऐतराज नहीं किया है। हम श्री एलिस ब्राउन और नगर परिषदके दूसरे सदस्योंसे पूछते हैं कि क्या एक गरीब आदमीको इस तरह सताना उस महान् संस्थाकी शानके अनुरूप है?
व्यापारको नियमित करनेके परिषद् के अधिकारपर हम आपत्ति नहीं करते। हमने, जब- कभी जरूरत हुई है, भारतीय लोकमतको रास्ता दिखाने और शान्त करनेमें विनम्र सहायता देना सदा अपना विशेष अधिकार समझा है। हमारा खयाल है कि विशेष व्यवसायोंके लिए विशेष इलाके सुरक्षित करना परिषद के लिए सामान्यतः बिलकुल ठीक होगा। परन्तु इस