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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कोई मुआवजा नहीं मिलनेवाला है। यह सच है कि वे अपनी इमारतें हटा सकते हैं। निरे नौसिखिये व्यापारी भी जानते हैं कि इस तरह हटाये जानेवाले लोह-लक्कड़की क्या कीमत होती है। निकायकी कार्रवाईसे ये लोग बरबाद हो रहे हैं। और सरकार कहती है कि वह लाचार है!

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २९-१०-१९०४

२३६. स्वर्गीय श्री डिगबी, सी० आई० ई०[१]

श्री विलियम डिगबी, सी० आई० ई० के निधन से भारतीयोंका एक ऐसा समर्थक उठ गया जिसका स्थान भरना कठिन है। उनका भारतीय पक्षको सामने रखनेका तरीका श्रम और सम्यक् ज्ञानसे भरा हुआ होता था। भारत-विषयक उनका अद्वितीय अनुभव प्रतिद्वन्द्वियोंको उत्तर देते समय सदा उनका अच्छा साथ देता था। वे इंडियन पोलिटिकल एजेंसीके संस्थापक और इंडिया पत्रके, जो उत्तम सेवा कर रहा है, प्रथम संपादक थे। किसीका दर्जा कम बताये बिना हम कह सकते हैं कि उक्त पत्रिकाका संपादन दिवंगत श्री डिगबीके मुकाबिलेमें कभी नहीं किया गया है। उन्होंने अपने विपुल लेखनके द्वारा सदा विभिन्न भारतीय प्रश्नोंको जनताके सामने रखा। स्वर्गीय श्री डिगबीके कुटुम्बके शोकमें हम अपनी हार्दिक सहानुभूति प्रकट करते हैं।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २९-१०-१९०४

२३७, पत्र: दादाभाई नौरोजीको[२]

ब्रिटिश भारतीय संघ

२५ व २६ को चेम्बर्स
रिसिक स्ट्रीट
जोहानिसबर्ग
अक्टूबर ३१, १९०४

सेवामें
माननीय दादाभाई नौरोजी
२२, केनिंगटन रोड
लंदन, द० पू० इंग्लैंड
प्रिय महोदय,

आपका १९ सितम्बरका पत्र मिला। उसके साथ आपने प्लेग फैलनेके बारेमें मेरे पिछले ४ अप्रैलके पत्र[३] से सम्बन्धित श्री लिटिलटनके पत्रकी प्रतिलिपि भी नत्थी की है। मैं जो

  1. श्री विलियम डिगबी (१८४९-१९०४) भारतकी आर्थिक समस्याओंके प्रामाणिक जानकार, लेखक: प्रॉस्परस ब्रिटिश इंडिया ('समृद्ध ब्रिटिश भारत) और भारतकी राष्ट्रीय कांग्रेसकी ब्रिटिश समिति के सदस्य थे।
  2. दादाभाई नौरोजीने इस पत्रका बड़ा भाग उस पत्र में उद्धृत किया है जो उन्होंने भारत-मन्त्रीको नवम्बर २२, १९०४ को भेजा था (सी० ओ० २९१, खण्ड ७५, इंडिया ऑफिस)।
  3. यह पत्र उपलब्ध नहीं है; किन्तु बहुत सम्भव है कि गांधीजीने अपने २-४-१९०४ के "प्लेग" शीर्षक लेखकी एक नकल दादाभाई नौरोजीको भेजी हो।