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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उपलब्धिपर बहुत असर पड़ेगा, क्योंकि उसके द्वारा गिरमिटिया लोगों और उनके बच्चों पर स्वतन्त्र होने के बाद तीन पौंडका वार्षिक कर लगा दिया गया है। उपनिवेशको भारतीय मजदूरोंकी जरूरत है, और फिर भी वह उसके अनेक स्वाभाविक परिणामोंसे बचना चाहता है। हमारे खयालसे यह असंगत स्थिति रास्तेकी जितनी बड़ी रुकावट है उतनी जैसा सम्मेलनमें कुछ वक्ताओंका खयाल था, यह समस्या नहीं कि नये प्रवासी पुरुषोंके साथ प्रतिशत कितनी स्त्रियाँ हों।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ५-११-१९०४

२४१. रंगमें भंग

ट्रान्सवालका तथाकथित एशियाई राष्ट्रीय सम्मेलन (एशियाटिक नेशनल कन्वेन्शन) अगर किया भी गया तो उसे जोहानिसबर्ग के प्रतिनिधियोंके बिना ही करना होगा। यह हैमलेट [ नायक ] के बिना हैमलेट [नाटक] के अभिनयके समान होगा। इस "स्वर्ण नगरी" के वाणिज्य संघ और व्यापार-संघ दोनोंने किसी भी ऐसे सम्मेलनसे सम्बन्ध रखनेसे इनकार कर दिया है जिसका उद्देश्य, श्री मिचलके शब्दों में, बेगुनाह लोगोंकी सम्पत्ति जब्त करना हो। इन संघका कहना है कि सम्मेलनके संयोजकोंने जो प्रस्ताव रखे हैं वे इतने कड़े हैं कि कोई ब्रिटिश समुदाय उन्हें स्वीकार नहीं कर सकता। क्योंकि उनके पीछे नीयत यह है कि ब्रिटिश भारतीय व्यापारियोंको मुआवजा दिये बिना बाजारोंमें हटा दिया जाये और निहित स्वार्थोकी कोई परवाह न की जाये। श्री बोर्क और श्री लवडेने जो इलाज सुझाया है वह पाँचेफस्ट्रूम पहरेदार संघके लिए भी अत्यन्त तेज है, यद्यपि, जैसा हमारे पाठक जानते हैं, यह संघ उस समय भी भारतीयोंका बुरी तरह विरोधी था, जब भारतीय प्रश्नपर सरकारी रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। हम दोनों व्यापार-संघों और पॉचेफस्ट्रम संघको बधाई देते हैं कि उन्होंने न्यायपर आरूढ़ रहनेका साहस किया। अन्धे और विवेकरहित विद्वेषके बीचमें प्रतिनिधि-संस्थाओं द्वारा प्रकाशित गम्भीर विचारों और भावोंकी सराहना करते हुए हमें राहत मिलती है। हमें सन्देह नहीं कि यदि ब्रिटिश भारतीय कुछ समय और देंगे, थोड़ा और धैर्य रखेंगे और पूर्णतः शान्तचित्त रहेंगे तो बाकी सब काम अपने आप हो जायेगा। जैसा स्वर्गीय प्रोफेसर मैक्समूलर कहा करते थे, किसी नये सत्यको लोगोंके गले उतारने और उनके पहलेसे बने हुए खयालोंको मिटानेका एकमात्र उपाय यही है कि उसे अथक रूपमें बार-बार दुहराया जाये। इसलिए हमारा कर्तव्य स्पष्ट है। हमें मौका हो चाहे न हो, यह दिखाते ही रहना चाहिए कि भारतीयोंका मामला मजबूत है और भारतीयोंने कभी कोई ऐसी माँग नहीं की जो औचित्यके साथ स्वीकार न की जा सके और जिसका गोरे व्यापारियोंके हितों और गोरे प्रभुत्वसे विरोध हो।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ५-११-१९०४