पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/३४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

२४५. एशियाई राष्ट्रीय सम्मेलन

जबतक यह लेख छपेगा — ट्रान्सवालमें तथाकथित राष्ट्रीय सम्मेलन हो चुकेगा। जोहानिसवर्गकी प्रतिनिधि संस्थाओंने अब अपने नुमाइन्दे भेजनेका निश्चय कर लिया है और श्री बोर्क और श्री लवडेने उन संस्थाओंके सुझाये संशोधन स्वीकार कर लिये हैं। इसलिए प्रस्तावोंमें मुआवजेका सिद्धान्त आ गया है। परन्तु हमारी रायमें सब संशोधनोंको मिलाकर देखा जाये तो वास्तवमें उनका अर्थ बहुत थोड़ा निकलेगा। पिछले अनुभवसे हमें चेतावनी मिलती है कि ऐसे सिद्धान्तके अपना लिये जानेसे भी कोई आशा नहीं रखनी चाहिए। पाठकों को याद होगा कि उस एशियाई आयोगने, जो सरकार द्वारा नियुक्त किया गया था और जो सौभाग्यवश, हबीब मोटन बनाम सरकार नामक परीक्षात्मक मुकदमेके कारण निष्फल हो गया था, उन सब भारतीयोंके दावे अस्वीकार कर दिये थे, जो लड़ाई छिड़नेसे ठीक पहले व्यापारमें लगे हुए थे। पाँचेफस्ट्रूमके लोगोंने काफी स्पष्ट कर दिया है कि उनके खयालके मुताविक मुआवजा उन्हींतक सीमित रहना चाहिए जिनके पास लड़ाई छिड़ने के समय पृथक् बस्तियोंके बाहर व्यापार करनेके परवाने थे। इसलिए हमारे खयालसे मुआवजेका अर्थ या तो बहुत थोड़ा-सा है या कुछ नहीं है। तब इस सारे भारतीय-विरोधी आन्दोलनका क्या होगा? अगर राष्ट्रीय सम्मेलनकी ही विजय होनी है तो हम उसका परिणाम जानते हैं। उस हालत में प्रत्येक स्वाभिमानी ब्रिटिश भारतीयको अवश्यम्भावीका सामना करने और इस देशसे चले जानेके लिए तैयार रहना चाहिए। कहने का अर्थ यह है कि उसे अपने ही घरमें अन्त्यज होकर रहना पड़ेगा। भारतीयोंको बचपनसे ही, बहुधा अंग्रेज शिक्षकों द्वारा और ब्रिटिश देखरेख में छपी और प्रकाशित हुई पुस्तकोंके माध्यमसे सिखाया गया है कि ब्रिटिश सरकारकी दीर्घ भुजा सवलसे निर्बलकी रक्षा करती है। जैसा कि गुजरातके स्वर्गीय राष्ट्रकविने[१] कहा है: "देखो, शत्रुता समाप्त हो गई, दुष्कर्मी सदाके लिए कुचल दिये गये और अब (अंग्रेजी राज्यमें) कोई मेमनेके भी कान नहीं ऐंठता।" भारतीयोंको यह भी सिखाया गया है कि जो देश ब्रिटिश नरेश और सम्राट्के राज्यमें शामिल हैं उनमें प्रत्येक प्रजाजनको पूरी स्वतन्त्रता और तमाम नागरिक अधिकार प्राप्त हैं — यहाँ तक कि, ब्रिटिश भूमिपर विदेशियोंके भी बन्धन टूटकर गिर जाते हैं। हम कहते हैं कि अगर राष्ट्रीय सम्मेलनकी जीत हो गई तो भारतीयोंको यह सब भूल जाना होगा। उन्हें पट्टी पोंछ डालनी होगी और ब्रिटिश संविधानमें अबतक उन्होंने जो कुछ सुन्दर समझा है उस सबको विस्मृत कर देना होगा और अपनी रोजीका साधन छिनता हुआ देखकर सन्तोष करना पड़ेगा। परन्तु हमें यह विश्वास नहीं होता कि जबतक ट्रान्सवाल ब्रिटिश ध्वज (यूनियन जैक) की इज्जत करता है तबतक वहाँ ऐसी कोई घटना सम्भव है। हम कल्पना नहीं कर सकते कि श्री लिटिलटन अपने खरीतेमें उल्लिखित नीतिसे मुँह मोड़ लेंगे और ऐसी बात मंजूर करेंगे जो भाषामें नहीं तो भावोंमें अवश्य ही ब्रिटिश प्रजाजनोंके अधिकारोंको जब्त करनेकी कार्रवाई होगी।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १२-११-१९०४
  1. गुजराती कवि श्री दलपतराम, जो एक वर्ष पूर्व मृत्युको प्राप्त हुए थे।