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२४६. नेटालका भारतीय आहत-सहायक दल[१]

हमारा लन्दनसे प्रकाशित सहयोगी इंडिया इस दलके सम्बन्धमें सरकारी आँकड़े स्वीकार करके गलतीका शिकार हो गया है, यद्यपि स्वयं उसकी फाइलोंमें सही आँकड़े मौजूद हैं। दुर्भाग्यसे इस दलके बारेमें पदक देनेका सारा काम ही गड़बड़ हो गया है। इसलिए हम आम जानकारीके लिए सही बातें फिरसे बता दें। दलकी रचना पहले-पहल कोलेंजोकी लड़ाईमें सेवा करने के लिए की गई थी। उस समय उसमें २५ नायक — सरदार नहीं और ६०० डोली वाहक थे। नायकोंको कुछ भी वेतन नहीं मिलता था --: उनकी वर्दियोंकी लागत भी भारतीय व्यापारियोंने दी थी। थोड़े समयकी सेवाके बाद दल भंग कर दिया गया। जब स्पियनकॉपकी तरफ बढ़नेकी पहली कोशिश की गई तब कर्नल गालवेने आज्ञा दी कि दल फिरसे बनाया जाये। उस समय लगभग ३० नायक और कमसे कम १,१०० से १,२०० तक डोलीवाहक थे। इस बार दलने ६ सप्ताह सक्रिय सेवा की और इस बीच आश्चर्यजनक यात्राएँ कीं यहाँतक कि, वह घालयोंको लेकर प्रतिदिन २५-२५ मीलतक चला। जनरल बुलरने अपने खरीतोंमें उसके कामका खास तौरसे उल्लेख किया है। यह किसीको पता नहीं कि सिर्फ आठ ही तमगे क्यों बाँटे गये। नायकों में से प्रत्येक उनका हकदार है और अगर युद्ध-कार्यालयका इन लोगों में पदक बाँटनेका इरादा है, जैसा कि अवश्य होना चाहिए, तो हम लगभग सभीका पता लगाने की जिम्मेदारी ले लेंगे। उस समय डोलीवाहकोंके नाम-पते वगैराकी पूरी सूची रखी गई थी और वह दल व्यवस्थापकके पास होनी चाहिए। जिस ढंगसे पदक बाँटे गये हैं उसके बारेमें हमने बहुत नहीं कहा है, क्योंकि हम चाहते हैं कि जिन नायकोंने काम किया, वे किसी पुरस्कारसे अपना सम्बन्ध न रखें। उन्होंने विशुद्ध कर्तव्य समझकर यह कार्य अपने जिम्मे लिया था; और उनकी योग्यताकी कद्र की जाती है या नहीं, इसकी परवाह न करके उन्हें यह कर्तव्य फिर भी हाथमें लेनेके लिए सदा तैयार रहना चाहिए।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १२-११-१९०४
  1. देखिए खण्ड ३, पृष्ठ १३८।