मान ईश्वरकी दृष्टिमें जो स्वीकार हो सके ऐसी नम्रता आ ही नहीं सकती, क्योंकि वह तो मनुष्यकी चमड़ीके रंगको नहीं, उसके गुणावगुणोंको देखेगा और तब निर्णय करेगा। हमारे सामने तो एशियाके पैगम्बर—हजरत ईसाका प्रमाण है। वे भी रंगदार जातिके ही थे। उन्होंने कहा है कि केवल तोतेकी तरह दुहराई गई प्रार्थना स्वर्गमें स्थान नहीं दिलाती। उनके शब्द है: "जो आदमी 'हे प्रभु, हे प्रभु!' कहकर मुझे पुकारते हैं वे सभी स्वर्गके राज्यमें प्रविष्ट नहीं होंगे, किन्तु वहाँ वही प्रवेश पायेगा जो मेरे पिताकी इच्छाका अनुसरण करता है।" प्रार्थना वही है, जिसके साथ अनुरूप क्रिया भी हो, अन्यथा वह व्यर्थ तोतारटन्त-मात्र है। बाइबिल कहती है: "पृथ्वी परमात्माकी है।" उपनिवेशवासियोंने इस मूल वचनको बदल दिया है। वे कहते हैं: "पृथ्वी हमारी है।" अत: जबतक ईश्वरकी आज्ञाओंको पैरों तले कुचला जाता है तबतक प्रार्थनाका दिन निश्चित करना निरा ढोंग है। फिर भी हम स्वीकार करेंगे कि घोषणा द्वारा ईश्वरका मजाक बुद्धिपूर्वक नहीं किया जा रहा है। यह तो संकट और जरूरतके समय ईश्वरके नाम निकली हुई हृदयकी पुकार है। परन्तु साथ ही यह हमारी स्वभावगत कमजोरीका एक सुन्दर उदाहरण भी है। हम ईश्वरको अपने नापसे नापते हैं और भूल जाते हैं कि उसके तरीके हमारे तरीकोंसे अलग है। अगर ऐसा नहीं होता तो जिसे हम भूलसे नम्रता और प्रार्थनाका नाम देते हैं उसके बावजूद हमसे बहुतसी चीजें छिन गई होतीं। प्रभु सर्वज्ञ है। उसका सूरज भले और बुरे सबको समान रूपसे प्रकाश देता रहता है।
परन्तु क्या हम परमश्रेष्ठ और उनकी सरकारसे क्षणभर रुकने और सोचनेके लिए नहीं कह सकते? घोषणासे इतना तो प्रकट है कि हृदयमें ईश्वरके प्रति श्रद्धा है। जिस हृदयमें ऐसी श्रद्धा निवास करती है, क्या उसके लिए एक समस्त जातिको, महज इसलिए कि उसकी चमड़ीका रंग उससे निन्दित बताना सुसंगत है, जबकि दोनों एक ही राजाके प्रति राजभक्तिके बंधनोंसे बँधे है? क्या ब्रिटिश भारतीयोंने ऐसी कोई बुराई की है, जिससे वे इतने अपमानित किये जानेके योग्य ठहरें, जितने अपमानित वे उपनिवेशमें किये जाते हैं? किन्तु अगर रंगदार जातियोंके प्रति इस जिहादको जारी ही रखना है, तो झूठमूठ नम्रताका नाम लेकर प्रार्थनाके लिए दिन मुकर्रर करके ईश्वर और मानवताके प्रति अपराध क्यों करते हैं?
इंडियन ओपिनियन, ८-१०-१९०३