२५५ हुंडामलका परवाना
जैसी कि हमें आशा थी, श्री हुंडामल अपीलमें जीत गये हैं और इस विजयपर हम उन्हें और उनके वकील श्री बिन्स दोनोंको बधाई देते हैं । किन्तु विद्वान मुख्य न्यायाधीशके फैसलेसे यह बिलकुल स्पष्ट है कि संघर्ष किसी प्रकार खतम नहीं हुआ है। अपीलका फैसला करीब- करीब एक गौण मुद्देपर हुआ है। न्यायाधीशने यह राय दी है कि श्री हुंडामलको परवाने के बिना व्यापार करनेके आरोप में सम्मन भेजनेमें भूल की गई है, क्योंकि उनके पास परवाना था । परन्तु उन्होंने अपीलमें उठाये गये इस मुद्देपर निर्णय देने से इनकार किया है कि परवाना- अधिकारीको किसी खास स्थानमें व्यापारको सीमित करनेका हक है या नहीं। इसलिए भारतीय समाजको काफी चिन्ता और भयके साथ नये सालको शुरू करना है। ब्रिटिश उपनिवेशमें ऐसी हालत नहीं रहने दी जानी चाहिए और हमें भरोसा है कि जल्दी ही इस कानून में संशोधन कर दिया जायेगा । स्वर्गीय श्री एस्कम्बने कहा था कि उन्होंने नगर परिषदको व्यापक सत्ता इसलिए दी थी कि उन्हें उसकी सौम्यतापर भरोसा था। हमें यह कहते हुए दुःख होता है कि डर्बन नगर-निगमने अनेक अवसरोंपर उन अपेक्षाओंको गलत साबित किया है और यदि इस उपनिवेशका प्रमुख नगर-निगम उन्हें उचित सिद्ध नहीं कर सका तो उससे छोटी संस्थाओंसे क्या अपेक्षा रखी जा सकती है ? सभी मानते हैं कि विक्रेता-परवाना अधिनियम दमनका एक भयंकर साधन है। तब क्या हम अपने विधानमण्डल सदस्योंसे यह अपील नहीं कर सकते कि वे स्थानीय अधिकारियोंसे यह प्रलोभन छीन लें ? तभी परवानोंके जारी करनेके कामको नियमित और नियन्त्रित रखना पूरी तरह सम्भव होगा, और शायद कहीं अधिक सन्तोषजनक ढंगसे। अपीलसे दूसरा विचार यह उत्पन्न होता है कि अपनी जीतके बावजूद श्री हुंडामलकी हार ही हुई है । केवल अभियोग पक्षकी सनकों और, हम आदरपूर्वक कह सकते हैं, मजिस्ट्रेटके उतावलीमें दिये गये फैसलेके कारण ही उन्हें भारी खर्च उठाना पड़ा है। यह मान लिया गया है कि मुकदमा गलतीसे चलाया गया था। फिर भी श्री हुंडामलको इस गलतीका नुकसान उठाना पड़ा है। यह संघर्ष असमान है और इसके आर्थिक पहलूको कभी नजरअन्दाज नहीं करना चाहिए। नगर परिषदसे कमसे कम इतना करनेकी तो अपेक्षा रखी ही जा सकती है कि उसकी गलतियोंके कारण इन गरीब लोगोंको जो खर्च उठाना पड़े वह उन्हें वापस कर देगी ।
[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २६-११-१९०४