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रोगका घर

दिया कि सम्मेलनने ब्रिटिश प्रजाजनों और गैर-ब्रिटिश प्रजाजनोंके भेदकी और, साथ ही दक्षिण आफ्रिकाके देशी लोगों और ब्रिटिश भारतीयोंके भेदकी भी बिलकुल उपेक्षा की है। इन दो मौलिक तथ्योंकी अवहेलनासे भारतीयोंकी जितनी हानि हुई है उतनी और किसी बातसे नहीं हुई। जिन सज्जनोंका भारतीयोंको ट्रान्सवालसे निकाल देनेमें स्वार्थ है उन्हें यह अनुकूल हो सकता है कि वे भारतीयोंको पहले तमाम एशियाइयोंमें शामिल करें और फिर एशियाइयोंको दक्षिण आफ्रिकाके देशी लोगोंके साथ मिलायें एवं इस प्रकार असली मुद्देको गड़बड़ीमें डाल दें। उनके लिए ऐसा करना कुछ उचित है, क्योंकि सर आर्थर लाली भी अपने खरीते में इस विचारके शिकार हो गये हैं। परन्तु हमें विश्वास है कि अब, जब कि सम्मेलनमें उपस्थित अधिकतर लोगोंके असली इरादे साफ-साफ मालूम हो गये हैं, हम चाहेंगे कि श्री अब्दुल गनीने जिन भेदोंपर जोर दिया है, ब्रिटिश सरकारके अधिकारी भी उन्हें स्वीकार करें। ब्रिटिश भारतीय संघने जिन प्रस्तावोंको सभामें दुहराया है हम उनकी तरफ भी अधिकारियोंका ध्यान खींचते हैं। यदि हमें यह कहने की अनुमति हो तो हम कहेंगे कि उन्होंने इस पेचीदा सवालका पूरा और साथ ही राजनीतिज्ञतापूर्ण हल सुझाया है।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २६-११-१९०४

२५७. रोगका घर

हम फेरेरास बस्तीके बारेमें डॉ० पोर्टरका सजीव विवरण उद्धृत कर रहे हैं । इससे मालूम होगा कि यह स्थान जोहानिसबर्गकी पुरानी भारतीय बस्तीकी अपेक्षा सफाईकी दृष्टिसे बेहद खराब है । यह ब्रिटिश संविधानकी ताकत भी है और साथ ही कमजोरी भी कि उसके अन्तर्गत कानूनी अधिकारके बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता, भले ही वह साफ तौरपर सार्वजनिक हितमें ही क्यों न हो । जोहानिसबर्ग प्लेग समितिको पता चला है कि इस स्थानमें प्लेग फैले या न फैले, उसे कानूनन वह उपाय अमलमें लानेका अधिकार नहीं है जिसे श्री क्विनने अग्नि- चिकित्सा कहा है। और, इसलिए, जोहानिसबर्गको बरसात के मौसममें दुबारा 'लेग फैलनेकी जोखिम उठानी ही होगी। हमें आशा है कि इस विषम स्थितिका कोई उपाय ढूंढ़ा जायेगा और जल्दी ही फेरेरास वस्तीकी सीमाके भीतरके इलाकेका योग्य सुधार किया जायेगा। डॉ० पोर्टरके दिये हुए आँकड़ोंसे अध्ययनकी रोचक सामग्री मिलती है। सारे इलाकेकी आबादीमें २८८ भारतीय, ५८ सीरियाई, १६५ चीनी, २९७ केपवाले, ७५ काफिर और ९२९ गोरे हैं। इनमें से डॉक्टर पोर्टरके कथनानुसार सही तौरपर गन्दे इलाकेकी आबादीका बँटवारा यहाँ देते हैं । भारतीय २५५, सीरियाई १७, चीनी १२६, केपवाले १९२, काफिर ३१ और गोरे २४१ । इस प्रकार हम देखते हैं कि नीचे दर्जेके लोग सभी जातियोंमें लगभग समान हैं । किन्तु हमारे खयालसे असली अपराधी मकान मालिक हैं। जबतक उनको भारी किराया मिलता है तबतक उन्हें इस बातकी जरा भी परवाह नहीं होती कि बेचारे किरायेदारोंपर क्या बीतती है या वे कैसे रहते हैं । और, मकान मालिक खून चूसनेकी कार्रवाई इसीलिए कर सके हैं कि जोहानिसबर्ग नगर परिषद बहुत ज्यादा लापरवाह है। परिषद बहुत पहले ही इस स्थानका मामला तय कर सकती थी । यहाँ ध्यान देनेकी बात यह है कि इस मामलेमें मकान मालिक भारतीय बिलकुल नहीं हैं, बल्कि यूरोपीय हैं। मगर इस कथनसे हमारा यह अभिप्राय नहीं है कि इन यूरोपीय