मेरे संघका आदरपूर्वक निवेदन है कि समितिकी कानूनी स्थिति कुछ भी हो, वह अपने उस एकमात्र अधिकारीके, जो उस संकटके समय जनताकी सुरक्षाके लिए जिम्मेदार था, दिये हुए वचनका आदर करनेके लिए नैतिक दृष्टिसे बाध्य है। अगर ऐसा वादा न किया गया होता तो यह सन्देहजनक है कि वहाँके निवासियोंने जिस तरह बिना किसी शिकायत के अपना सामान छोड़ दिया था, उस तरह, प्लेग-अधिकारीको इच्छाको पूर्ण करने के लिए, वे उसे छोड़ते । जो सामान नष्ट किया गया, उसमें सूखे अनाज और दालके भरे हुए बोरे और डिब्बोंमें बन्द खाद्य-पदार्थ भी थे, जिन्हें वियेना-सम्मेलनने छूत न फैलानेवाला करार दिया है । लकड़ी और धातुकी घरेलू साज-सज्जाको भी नष्ट कर दिया गया था । यह तो नहीं कहा जा सकता कि ऐसी चीजें छूत रहित नहीं की जा सकती थीं ।
लम्बी वार्ताओंके बाद समितिने उस सामानके दावांको मंजूर कर लिया है, जिसे उसने बस्तीकी दूकानोंसे निकालकर काममें ले लिया था । एक समय तो इन दावोंको भी लगभग अस्वीकार कर दिया गया था। यह भी स्वीकार कर लिया गया है कि जो सामान काममें लाया गया, वह उसी किस्मका था, जिस किस्मका कुछ सामान नष्ट किया गया था। दूसरी खाद्य वस्तुओंको काममें लानेके बदले नष्ट कर देनेका कारण यह बताया गया है कि समिति पृथक् शिविरोंमें जरा-सी भी छूत की जोखिमको टाल देना चाहती थी। सच तो यह है कि कुछ सामान क्लिपस्प्रूट भी भेजा गया था। वहाँके निवासी बस्तीकी दूकानोंका सामान स्वयं खपा लेनेको बिलकुल तैयार थे ।
सामान खरीदीकी माँगें भी सबसे समान या निष्पक्ष रूपसे नहीं की गईं, यह उल्लेखनीय है । समितिकी खरीददारी कुछ गिने-चुने दुकानदारोंतक ही सीमित रही। इस प्रकार, कुछ भाग्यशाली लोग अपनी दूकानोंके सारे मालसे छुट्टी पा गये । और उनके दावे दुकानोंतक ही सीमित होनेके कारण, उन्हें उसका पूरा भुगतान मिल गया। परन्तु उनके कम भाग्यशाली भाइयोंको बिलकुल ही कुछ नहीं मिला ।
बहुत से लोग अपना सामान इस तरह पूरा-पूरा नष्ट कर दिये जानेके कारण लगभग कंगाल बन गये हैं ।
इसलिए मेरा संघ महामहिमसे हस्तक्षेपका अनुरोध करता है। हमें विश्वास है कि रैंड प्लेग - समितिके आदेशसे जो माल नष्ट किया गया था उसके मूल्यके सम्बन्धमें पूर्व भारतीय बस्तीके निवासियोंके दावोंपर महामहिम अनुकूल विचार करानेकी कृपा करेंगे।
और न्याय तथा दयाके इस कार्यके लिए प्रार्थी, कर्त्तव्य समझकर, सदा हुआ करेंगे ।
(ह.) अब्दुल गनी,
अध्यक्ष,
ब्रिटिश भारतीय संघ
[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १०-१२-१९०४