नागरिक अवश्य ही मामला अपनी इच्छाओंके अनुसार निपटानेकी माँग करेंगे। अगर व्यापारके मामलेमें भारतीय लोग नागरिकोंकी इच्छाओंका विरोध करते हैं, जिसका उदाहरण क्वीन स्ट्रीटकी मनहूस काफिर-मंडी है, और तब उनपर पहले से कहीं अधिक कठोर ढंगको पाबन्दियाँ लगा दी जाती हैं, तो उन्हें आश्चर्य न होना चाहिए। मुझे ब्रिटिश भारतीयोंके अधिकारोंका पूरा खयाल है । परन्तु भारतीयोंको आम तौरपर समझ लेना चाहिए कि अगर वे बाधक होंगे और इस समाजपर अपनी इच्छाएँ थोपेंगे और इस नगरपर मॉरिशसकी तरह छा जाना चाहेंगे, तो वे देखेंगे कि सभी वर्गोंके गोरे लोग उनके खिलाफ एक हो गये हैं । यह अच्छा है कि यह बात साफ-साफ बता दी जाये । इस नगरके नागरिक, जिन्होंने इसे बनाया है और जिनपर इसकी जिम्मेदारी है, भारतीयोंके नचाये नहीं नाचेंगे। वे ऐसा संगठन बनाकर सही रास्तेयर चल रहे हैं जो यह आग्रह करेगा कि नगर परिषद इस ढंगपर काम करे या ऐसी सत्ता प्राप्त करे जिससे भारतीयोंके लिए धोखेबड़ीकी गुंजाइश न रहे और भारतीय समाज बहुत-कुछ बँध जाये । क्वीन स्ट्रीटकी काफिर-मंडीके बारेमें जो रवैया इख्तियार किया गया है, अकेला वही समाजके क्रोधको भड़कानेके लिए काफी है और एकबार कानूनी अधिकार निश्चित हो जानेके बाद परवानोंके बारे में विरोध करनेसे परिस्थितिमें सुधार नहीं होगा ।
हमारे सहयोगीने क्वीन स्ट्रीटकी काफिर-मंडीको हुंडामलके मुकदमेसे मिला दिया है, जिससे उसका दूरका भी सम्बन्ध नहीं है । और उसने ढुंडामलके मुकदमेको भारतीय परवानोंके सारे प्रश्नसे जोड़ दिया है और फिर नागरिकों को भारतीयोंके खिलाफ भड़काया है ।
काफिर - मंडी ऐसी खटकनेवाली चीज है, जिसके पक्षमें कुछ भी नहीं कहा जा सकता । इस मामले को उसके गुण-दोषोंके आधार पर निपटाना है । परन्तु एक व्यक्तिके दुराग्रहके लिए सारी जातिको दोष देना ठीक नहीं होगा। यह कहना भी ठीक नहीं है कि नागरिकोंकी उचित इच्छाओंका दृढ़तापूर्वक विरोध करनेका विचार बाँध रखा गया है । हम मानते हैं कि परवाने बदलने के कामका नियमन होना चाहिए। परन्तु मौजूदा मामलेमें हमारा खयाल है कि नगर- परिषदकी कार्रवाई मनमानी, द्वेषपूर्ण, अत्याचारपूर्ण और अन्यायपूर्ण है । श्री हुडामलका पक्ष औचित्यकी दृष्टिसे अत्यन्त सबल है। उनका मकान बढ़िया हालतमें है और अपनी श्रेणीमें वेस्ट स्ट्रीटके अच्छे-अच्छे मकानके मुकाबले में अच्छा ठहर सकता है । वे स्वयं बहुत ही साफ- सुथरी आदतोंके व्यक्ति हैं। उनका व्यापार ऊँचे दर्जेके यूरोपीयोंमें है और उनपर बहुत-सी यूरोपीय कोठियोंका विश्वास है। कानून उनके पक्ष में दिखाई देता है। तब वे इनसाफकी रूसे जिस बातके हकदार हैं उसके लिए क्यों न लड़ें? और यदि नगर परिषदका सारा जोर उनके खिलाफ अन्यायपूर्ण ढंगसे लगा दिया जाता है और आम भारतीय इस पीड़ित व्यापारीके सहा- यतार्थ एक हो जाते हैं तो ऐसा करना उनका कर्त्तव्य ही है और हमारे खयालसे हमारे सहयोगीको भारतीयोंके न्याय प्राप्तिके प्रयत्नकी नुक्ताचीनी करनेके बजाय सराहना करनी चाहिए। जब इस सिद्धान्तपर अमल हो जाये तब भारतीयोंसे अपील करनेका समय आयेगा कि वे नगर- परिषदकी इच्छाओंकी पूर्ति करें ।
[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १७-१२-१९०४