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पत्र: "स्टार" को

शब्द केवल यूरोपीयोंके लिए ही लागू हो सकते थे। इसके उलटे, सच बात यह है कि १८८४ के समझौते के स्वीकृत होनेके पहले ही भारतीय प्रवासी यहाँ मौजूद थे। मैंने आपके विवरणको दूसरे पत्रोंके विवरणोंसे मिला कर देखा है और सार रूपमें वह उनसे मिलता है। इसलिए, जहाँतक मेरा सम्बन्ध है, मेरी यह शिकायत पूरी तरह न्यायोचित है कि श्री लवडेने इस प्रश्नका इति-हास पेश करते हुए एक महत्त्वकी हकीकत छोड़ दी थी। अब, जहाँतक उस गलतबयानीका सम्बन्ध है, जिसके आधारपर १८८५ का कानून ३ पास किया गया, मैं एक अर्जीका निम्नलिखित अंश उद्धृत करता हूँ। यह अर्जी उन अनेकानेक अर्जियों में से एक है, जिनके आधारपर हमारी पूर्वगामी सरकारने ब्रिटिश सरकारको उक्त धाराको कानूनी रूप देनेकी अनुमति प्रदान करनेके लिए राजी किया था। अर्जीके अंश ये हैं:

सारे समाजपर इन लोगोंकी गन्दी आदतों और अनैतिक आचारसे अत्पन्न कोढ़, उपदंश तथा इसी प्रकारके अन्य घृणित रोगोंके फैलनेका जो खतरा आ खड़ा हुआ है।
और भी,
चूँकि ये लोग पत्नियों या स्त्री-रिश्तेदारोंके बिना राज्यमें आते हैं, नतीजा साफ है। इनका धर्म सब स्त्रियोंको आत्मारहित और ईसाइयोंको स्वाभाविक शिकार मानना सिखाता है।

इन अर्जियोंपर उत्तरदायी लोगों और जनताके प्रतिनिधियोंने हस्ताक्षर किये थे। और इन अंधाधुंध, अन्यायपूर्ण और असत्य बयानोंके कारण ही १८८५ का अधिनियम ३ मंजूर किया गया था। श्री लवडेने अपना कथन फिरसे दुहरा देना उचित समझा है कि एक अरब व्यापारी ४० पौंड सालानासे ज्यादा खर्च नहीं करता। उन्होंने अपने समर्थनमें एशियाई व्यापारी आयोग (एशियाटिक ट्रेडर्स कमीशन) की कार्रवाईका हवाला दिया है। मगर उस आयोगके सदस्योंने ऐसी कोई बात कही ही नहीं। पाँचेफस्ट्रूममें उन्होंने और भी जोरोंसे अपनी बात कही है। इसलिए मैं फिरसे उस कथनका खण्डन करता हूँ और सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि श्री लवडेकी अपेक्षा मुझे इस बातका ज्ञान ज्यादा होना चाहिए कि भारतीय व्यापारी कितना खर्च करता है। कुछ लोगोंको तो सालमें नहीं, महीनेमें ४० पौंडतक सिर्फ किराया ही दे देना पड़ता है। क्या श्री लवडे किसी एक भी भारतीय व्यापारीसे परिचित हैं? उन्होंने कभी भारतीय व्यापारियोंके बहीखाते देखे हैं? क्या उन्होंने एशियाई आयोगकी रिपोर्ट पढ़ी है? मैं खुशीके साथ उनके सामने २० भारतीय व्यापारियोंके बहीखाते पेश करनेको तैयार हूँ; क्या अब वे उन्हें देखना पसन्द करेंगे? मैं इस बयानका खण्डन करता हूँ कि भारतीय व्यापारियोंके कर्मचारियोंको २० शिलिंग माहवारसे ज्यादा नहीं मिलता। मैं उनके सामने ऐसे भारतीय कर्मचारियोंके नाम रखनेको तैयार हूँ, जिन्हें भोजन और निवासके खर्चके अलावा १०० पौंड सालाना वेतन मिलता है। श्री लवडेने मेरे इस वक्तव्यको, कि किसी भारतीयको देशमें आनेकी अनुमति नहीं दी जाती, "दुष्टतामय असत्य” बताया है। अगर मैंने गलती की है तो परवाना विभागके मुख्य सचिवने भी वही किया है। आपको याद होगा, कुछ ही महीने पहले मुख्य सचिवने लॉर्ड मिलनरको रिपोर्ट दी थी कि किन्हीं भी नये भारतीयोंको उपनिवेशमें आनेकी अनुमति नहीं दी जाती। उन्होंने यह भी कहा था कि परवाने सिर्फ बहुत कम संख्या में प्रामाणिक शरणार्थियोंको दिये जाते हैं। श्री लवडेने इस बयानके विरोध में प्रिटोरिया और पॉचेफस्ट्रमका उदाहरण देते हुए कहा है कि युद्धके बादसे प्रिटोरियामें भारतीय प्रवासियोंकी आबादी दूनी हो गई है; युद्धके पहले जहाँ १५-२० व्यापारी ही थे वहाँ अब ९० से १०० तक हैं। यह बिलकुल निराधार है। प्रिटोरियामें भारतीयोंकी आबादी बढ़ी जरूर है, किन्तु वह दुगुनी नहीं हुई। इस बढ़तीका कारण यह है कि उपनिवेशके दूसरे हिस्सों के