लोग वहाँ आ गये हैं, क्योंकि दूसरी जगहोंमें उन्हें न तो परवाने मिले और न रोजी कमाने के कोई दूसरे साधन ही। परवाना अधिकारीके कथनानुसार, उपनिवेशमें १०,००० से ज्यादा भार-तीय नहीं हैं। १८९६ में ट्रान्सवालमें लगभग १०,००० भारतीय थे और निस्सन्देह १८९९ में यह संख्या बहुत बढ़ गई होगी। माननीय सज्जनने आगे कहा है कि "युद्ध के पूर्व पीटर्सबर्ग में १३ भारतीय दूकानें थीं, आज उनकी ४९ दूकानें हैं।” इसके खिलाफ, मैं यह कहनेकी ढिठाई करता हूँ कि युद्धके पूर्व सिर्फ शहर में ही २३ दूकानें थीं, आज २८ हैं । इसके बाद श्री लवडेने कहा है:
भारतीय हमसे कहते हैं कि उनके कुछ अधिकार हैं; उन्हें वे 'स्वतन्त्रताका घोषणा-पत्र' कहते हैं। परन्तु क्या भारतमें भारतीयों और गोरोंके बीच कोई भी सामाजिक व्यवहार होता है? वहाँ किसी तरहका कोई व्यवहार नहीं है।
यह प्रश्न बेकार ही उठा दिया गया है। भारतीयोंने यहाँ कोई सामाजिक व्यवहार शुरू करनेकी माँग नहीं की। उन्होंने सिर्फ व्यापारकी उचित सुविधाओंके प्राथमिक अधिकारका, सामान्य प्रतिबन्धोंके अन्तर्गत प्रवासकी उचित सुविधाओंका सम्पत्ति रखने और आवागमनकी स्वतन्त्रता पानेका दावा किया है। परन्तु श्री लवडेकी जानकारीके लिए मैं बता दूं कि भारतमें भारतीयों और अंग्रेजोंके बीच कुछ हदतक सामाजिक सम्बन्ध भी हैं। कूचबिहारके महा-राजा द्वारा आयोजित सहनृत्य (बॉल-डान्स) में सर्वश्रेष्ठ यूरोपीय समाज सम्मिलित होता है। वाइसराय और गवर्नरोंके कार्यक्रमों और भोजोंमें सब वर्गोंके भारतीयोंको आमन्त्रित किया जाता है। भारत के मुख्य शहरों में समय-समयपर जो दरबार हुआ करते हैं, वे शहंशाहकी अंग्रेज प्रजाके बराबर ही भारतीय प्रजाके लिए भी खुले होते हैं। अगर मैं यह सब कह रहा हूँ तो सिर्फ इसलिए कि हमारे सबसे पुराने परिषद सदस्यका शोचनीय अज्ञान प्रकट हो जाये; अपने देशभाइयोंके दिलों में सामाजिक कार्योंमें भाग पानेकी जरा भी इच्छा जागृत करने के लिए नहीं। उपनिवेशके गोरे आव्रजकोंकी सामाजिक व्यवस्थामें अपने-आपको ठूंसने की हमारी कोई इच्छा नहीं है। यह विषय मेरे लिए बड़ा दर्दभरा है, इसलिए इसका अधिक विस्तार करनेकी आवश्य-कता नहीं। पाँचेफस्ट्रूममें इन माननीय महाशयने जो भाषण किया उसे ललकारे बिना छोड़ देना असम्भव था। परन्तु रंग-भेद सम्बन्धी प्रश्नपर विचारके समय अगर उन्होंने सब बातोंका सच्चा रूप देखने में अपने-आपको बिलकुल असमर्थ न बना लिया हो, तो मैं उनसे अनुरोध करूँगा कि वे अपनी न्याय तथा औचित्यकी बुद्धिका प्रयोग करें। मैं उनसे सिर्फ यह कहूँगा कि वे अपने इतिहास और तथ्योंका अध्ययन करें। ब्रिटिश भारतीय संघ के प्रस्तावोंपर भी, जिन्हें मैं बहुत ही नर्म और उचित समझनेकी धृष्टता करता हूँ, वे विचार करें। और बादमें वे अपने-आपसे पूछें कि क्या वे अपनी शक्तिका अपव्यय नहीं कर रहे हैं? जिन लोगोंपर उनका इतना नियन्त्रण है उन्हें गलत रास्तेपर भटका नहीं रहे हैं? देशमें उनकी जो उत्तरदायी हस्ती है उसके प्रति अन्याय नहीं कर रहे हैं? और जिस साम्राज्यकी प्रजा होनेका, वे दावा करते हैं, उन्हें अभिमान है, उसकी कुसेवा नहीं कर रहे हैं?
आपका, आदि,
अब्दुल गनी
इंडियन ओपिनियन, २४-१२-१९०४