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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/३७७

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२७२ अपनी बात[]

इंडियन ओपिनियन अपने जीवनके डेढ़ बरसके छोटेसे कालमें अपने कार्यकी तीसरी मंजिल में प्रवेश कर रहा है। इसके संचालकने देशभक्ति-पूर्ण उद्देश्योंसे प्रेरित होकर, अत्यल्प साधनोंके साथ, यह कार्य आरम्भ किया था। पत्रके सम्पादनके लिए उन्हें शुद्ध स्वैच्छिक और अवैतनिक सहायतापर निर्भर रहना पड़ा। यह सहायता उन्हें तत्परताके साथ मिली। संचालकका इरादा था कि साधारण छपाईसे जो लाभ हो उससे पत्रका अपेक्षित घाटा पूरा करके पत्रको स्वावलम्बी बना लिया जाये। मगर ऐसा हुआ नहीं। यद्यपि यह पत्र एक सच्ची जरूरत पूरी करता था, फिर भी जिसे व्यापारिक मांग कहा जा सकता है, उसको पैदा करनेकी जरूरत थी। दूसरे शब्दोंमें, पत्रको न सिर्फ अपनी सामग्री जुटानी थी, बल्कि पाठक भी खोजने थे। इसके अलावा, पाँच सौ से अधिक प्रतियाँ भेंटमें भेजनी पड़ती थीं। यह बहुत बड़ी बाधा थी। इसलिए आर्थिक सहायता मांगनी पड़ी। नेटाल भारतीय कांग्रेस और ब्रिटिश भारतीय संघने यह सहायता दी और भेंटकी प्रतियोंकी छपाई तथा उनके भेजनेके खर्चको मदमें कुछ रकमें देना स्वीकार किया।

फिर भी पत्र सर्वभक्षी मगर-मच्छकी भाँति जो भी आमदनी हुई, उसे खाता गया और अभी वह और माँगता ही था। स्थितिको सँभालना केवल पुरुषार्थमय उपायोंसे सम्भव था। छुटपुट प्रयत्न बेकार थे। क्षणिक राहतकी दवाएँ खतरनाक थीं। तब सिर्फ यह एक उपाय रह गया कि निष्ठावान कार्यकर्ताओं और मित्रोंसे एक नवल और क्रान्तिकारी योजनाको इख्तियार करनेका अनुरोध किया जाये। उनको वर्तमानको नहीं, बल्कि भविष्यको देखना था; अपनी जेबोंका नहीं, बल्कि पत्रका खयाल पहले रखना था। और वे ऐसा क्यों न करते? इंडियन ओपिनियनका ध्येय सम्राट एडवर्डकी यूरोपीय और भारतीय प्रजाओंमें निकटतर सम्बन्ध स्थापित करना था। उसका ध्येय लोकमतको शिक्षित करना, गलतफहमीके कारणोंको दूर करना, भारतीयोंके सामने उनके अपने दोष रखना और उन्हें, जब कि वे अपने अधिकारोंकी प्राप्तिका आग्रह कर रहे हैं, उनका कर्त्तव्य-पथ दिखाना था। यह समस्त एक साम्राज्यीय और शुद्ध आदर्श था और इसकी पूर्तिके लिए कोई भी व्यक्ति निःस्वार्थ भावसे प्रयत्न कर सकता था। इसलिए यह कुछ कार्यकर्ताओंको अच्छा लगा।

संक्षेपमें योजना यह थी। अगर शहरके भीड़-भड़क्केसे दूर जमीनका कोई काफी बड़ा टुकड़ा ऐसा मिल जाये, जिसपर मकान बनाकर छापेखानेकी कल और मशीनें रखी जा सकें, तो हरएक कार्यकर्ताको भी रहनेके लिए जमीन मिल सकती है। इससे बहुत खर्च उठाये बिना ही स्वच्छ और आरोग्यप्रद अवस्थाओं में रहनेकी समस्या भी सरल हो जायेगी।

कार्यकर्ताओंको हर महीने उतना रुपया पेशगीके तौरपर दिया जा सकता है, जितना कि उनके एक महीनेके जरूरी खर्चके लिए काफी हो और सालके अन्तमें सारा लाभ उनके बीच

  1. यह बादमें ३१-२२-१९०४ के अंकमें इस परिचयात्मक टिप्पणीके साथ परिशिष्टके रूपमें पुन: छापा गया था:
    "निम्न अग्रलेख हमारे दिसम्बर २४, १९०४ के अंकमें प्रकाशित हुआ था और चूँकि हम तब इसकी मॉंगकी पूर्ति के लायक प्रतियाँ नहीं छाप सके थे, हम इसे अब परिशिष्टके रूपमें प्रकाशित करते हैं। हम अपने हमदर्दी और मित्रोंको इसकी जितनी वे चाहें उतनी प्रतियाँ मुफ्त वितरणके लिए देंगे। (सं० - इं० ओ० )"