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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अबतक नहीं हुआ है। यह मामला पुनर्विचारके लिए सर्वोच्च न्यायालयके अधीन है। परन्तु इतना तो बहुत साफ है कि अगर नेटाल परवाना अधिनियमका मंशा भारतीयोंको जरा भी शान्ति देनेका है, तो उसमें ऐसा परिवर्तन किया जाना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालयको न्याय सम्बन्धी सब निर्णयोंपर पुनः विचार करनेका स्वतः सिद्ध अधिकार फिर मिल जाये—भले ही वह निर्णय देनेवाला अफसर कोई भी क्यों न हो; वह मजिस्ट्रेट या परवाना अधिकारी, कुछ भी क्यों न कहलाता हो। भारतीय गिरमिटिया मजदूरोंकी हालतकी जब-तब समीक्षा करना जरूरी होता है। लेडीस्मिथमें हालमें हुए मुकदमोंकी, जिनकी ओर हमारे सहयोगी नेटाल विटनेसने विशेष ध्यान आकर्षित किया है, जाँचकी आवश्यकता है। नेटालवासी भारतीयोंके बच्चोंकी शिक्षाका प्रश्न अत्यन्त महत्त्वका है। भूतपूर्वं शिक्षा अधीक्षक श्री बार्नेटने ठीक ही कहा है कि अगर केवल गोरे लोगोंके हितका ही खयाल किया जाये तो भी उन बच्चोंकी उपेक्षा करनेमें खैरियत नहीं हो सकती। भारतीय बच्चोंको उपयुक्त शिक्षा देनेके लिए या तो साधारण स्कूलोंके द्वार खुले रखने चाहिए, या नये स्कूलोंकी स्थापना होनी चाहिए। यहाँ हम उल्लेख कर दें कि साधारण पाठ्यक्रम में भारतीय भाषाओंकी शिक्षा जोड़ देना वांछनीय होगा। उपनिवेशमें दुभाषियोंका काम जिस तरह चल रहा है, वह बिलकुल सन्तोषजनक नहीं है; फिर भी उसमें दुभाषियोंका कोई दोष नहीं। अगर भारतीय नवयुवकोंको भारतीय भाषाओंकी शिक्षा दी जाये तो योग्य दुभाषिये प्राप्त करनेका यह एक सस्ता तरीका होगा।

जहाँतक ट्रान्सवालकी बात है, वह अब भी भारतीय समाजके लिए सर्वाधिक चिन्ताका विषय बना हुआ है। वहाँ अभी किसी बातका फैसला नहीं हुआ। १८८५ का कानून ३ कठोरताके साथ कार्यान्वित किया जा रहा है। सच तो यह है कि वर्तमान सरकार कानूनकी मर्यादाको भी लाँघ गई है। भारतीयोंको ट्रान्सवालसे बाहर रखनेके लिए उसने शान्ति-रक्षा अध्यादेशका, जो कि एक शुद्ध राजनीतिक कानून है, प्रयोग किया है। प्रामाणिक शरणार्थियोंको भी देश में आने से रोका जाता है। हबीब मोटन बनाम महान्यायवादीके मुकदमेसे भारतीय व्यापारियोंको एक तरहकी राहत मिली है और वे बिलकुल नामशेष हो जाने के खतरेसे बच गये हैं। परन्तु उस मुकदमेकी जीतसे ट्रान्सवालमें ब्रिटिश भारतीयोंके विरुद्ध एक हिंसात्मक, आक्रमणात्मक और अज्ञानमय आन्दोलनको जन्म मिला। उसकी परिसमाप्ति उस एशियाई-विरोधी समझौतेमें हुई, जो अब काफी बदनाम हो चुका है और जिसमें कठोर तथा ब्रिटिश आदर्श-विरोधी कार्रवाइयोंकी सिफारिश की गई है। और, उत्तेजक भाषणों द्वारा उसका समर्थन किया गया। श्री लवडेने एक भाषण देकर ख्याति कमायी और उनके उस भाषणने ब्रिटिश भारतीय संघके अध्यक्षको एक तीखा प्रत्युत्तर देने के लिए बाध्य कर दिया। श्री लवडेने श्री अब्दुल गनीके वक्तव्यका प्रतिवाद करनेका प्रयत्न किया; परन्तु श्री अब्दुल गनीने उन्हें फिर चकरा दिया है। उन्होंने स्टारको एक पूर्ण, और बिना लाग-लपेटका प्रतिवाद[१] लिख भेजा है। इस तरह, यद्यपि ब्रिटिश भारतीय संघ सच्ची परिस्थितियाँ सामने रखकर बहुधा लोगोंके अनर्गल वक्तव्योंका मुकाबला कर सका है, फिर भी स्थिति तो उग्र बनी ही है। पॉचेफस्ट्रम और अन्य स्थानोंके लोग स्थानीय भारतीयोंके बहिष्कारकी आवाजें उठा रहे हैं और भारतीयोंकी धार्मिक भावनाओंपर आघात भी कर रहे हैं। इसी बीच, सदा परिवर्तित होती रहनेवाली नीतिका अवलम्बन करके मूल्यवान समयका नाश किया जा रहा| लॉर्ड मिलनर न्यायके पक्षमें दृढ़ रहने में असफल हुए हैं और उन्होंने ब्रिटिश भारतीयोंके अधिकार, चीख-पुकार भरे स्वार्थी आन्दोलनसे प्रभावित होकर, परार्पित कर दिये हैं।

  1. देखिए “पत्र: स्टारको", दिसम्बर २४, १९०४ के पूर्व; पृष्ठ: ३४२-४४।