और इसके संस्थापक आज सरीखी उमंग सदा बनाये रखेंगे और पुस्तकालयको स्थायी बनानेका प्रयत्न करते रहेंगे।
इसके बाद, पुस्तकें कौन-सी रखी जायें और वाचनका समय कौन-सा तय किया जाये—इस बारेमें श्री गांधीने अनेक महत्त्वके सुझाव दिये। उन्होंने रविवारके दिन विशेष रूपसे पुस्तकालय में आकर मूक सन्मित्र—पुस्तकों—के बीचमें बैठकर उनसे लाभान्वित होनेका आग्रह भी किया। फिर उन्होंने उपस्थित सज्जनोंसे हमारे इंडियन ओपिनियनके बारेमें दो शब्द कहकर भाषण समाप्त किया और पुस्तकालयका उद्घाटन सम्पन्न हुआ।
इंडियन ओपिनियन, १४-१-१९०५
२८३. पत्र: गो० कृ० गोखलेको
२१-२४ कोट चेम्बर्स
नुक्कड़, रिसिक ऍड ऐंडर्सन स्ट्रीट्स
पो० ऑ० बॉक्स ६५२२
जोहानिसबर्ग
जनवरी १३, १९०५
सेवामें
पूना
प्रिय प्रोफेसर गोखले,
इंडियन ओपिनियन निकल रहा है, यह आप जानते हैं। अब वह एक ऐसा कार्यक्षेत्र अपना रहा है जिसमें मैं अपने विचारसे आपकी सक्रिय सहानुभूतिके लिए औचित्यपूर्वक प्रार्थना कर सकता हूँ। मैं आपको सब कुछ साफ-साफ लिखना चाहता हूँ, क्योंकि आप मुझे इतनी अच्छी तरह जानते हैं कि गलतफहमी नहीं हो सकती। जब मैंने देखा कि श्री मदनजीत बिना आर्थिक सहा- यताके पत्रको और नहीं चला सकते और चूँकि मैं जानता था कि वे पूर्णरूपेण देशभक्तिकी भावना से प्रेरित हैं, मैंने अपनी बचतका अधिकांश उन्हें सौंप दिया । किन्तु यह काफी नहीं हुआ, अतः तीन महीने पहले मैंने सारी जिम्मेदारी और व्यवस्था ले ली। अब भी श्री मदनजीत बरायनाम मालिक और प्रकाशक हैं, क्योंकि मेरा विश्वास है कि उन्होंने समाज के लिए बहुत- कुछ किया है। फिलहाल मेरा अपना दफ्तर इंडियन ओपिनियन के काममें लगा है और मुझपर लगभग ३,५०० पौंडकी जिम्मेदारी आ चुकी है। कुछ अंग्रेज मित्रोंके सामने, जो मुझे घनिष्ठ रूपसे जानते हैं, मैंने संलग्न पत्र में वर्णित योजना रखी। उन्होंने विचारको उठा लिया और इस समय उसपर पूरी तरह अमल किया जा रहा है। यद्यपि इसमें फर्ग्युसन कॉलेज पूनाके संस्थापकोंके आत्मत्यागके मुकाबिलेका आत्मत्याग दिखायी नहीं पड़ता, फिर भी मैं कह सकता हूँ कि यह उसका बुरा अनुकरण नहीं है। अंग्रेज मित्रोंको इस निर्भयतासे सामने आते देखना मेरे लिए एक बड़ी ही खुशी की बात हुई है। वे साहित्यिक नहीं हैं किन्तु खरे, ईमानदार और स्वतन्त्र विचारके लोग हैं। इनमेंसे हरएकका — अपना काम या धन्धा था और वह ठीक तरह चल रहा