२८४. भारतीयोंकी सत्यपरायणता
यह खयाल आम तौरपर फैला दिखाई पड़ता है कि सत्यपरायणता—सत्यकी अनन्त खोजकी बाह्य अभिव्यक्ति—एक ऐसा सद्गुण है जो भारतीयोंके स्वभावमें पाया ही नहीं जाता। इस मान्यतामें गलतफहमीकी सम्भावनाके लिए कोई गुंजाइश ही नहीं। भ्रांतिकी सम्भावनाके लिए कोई अवकाश नहीं। बस, भारतीयको एकदम ठग, बदमाश, झूठा, आवारा—सारांश यह कि, ऐसा मनुष्य ठहरा दिया जाता है जो इज्जतके प्रत्येक चिह्नसे रहित है। इस देशमें जो भारतीय आये हैं उनके बीच कोई फर्क नहीं किया जाता। सब आँख मूंदकर कुली" या "अरब" की कोटिमें रख दिये जाते हैं और सबपर एक समान प्रत्यक्ष या सम्भाव्य झूठा होनेका कलंक लगा दिया जाता है। यह भुला दिया जाता है कि दक्षिण आफ्रिका में सामान्यतः भारतीयोंके दो मुख्य वर्ग हैं।—एक तो गिरमिटिया मजदूरोंका और दूसरा व्यापा-रियोंका। गिरमिटिया भारतीयोंमें लगभग आधे नीची जातियोंके लोग हैं। वे भारतमें अपने अभ्यस्त वातावरण और अपने निवास-स्थानके नैतिक प्रतिबन्धोंसे जुदा कर दिये गये हैं। फलतः भारतमें उन्होंने अपने लिए चरित्रका जो मानदण्ड स्थिर कर रखा था, उससे उनका पतन हो जाना ठीक वैसे ही सम्भव है जैसे कि इसी प्रकारकी परिस्थितियोंमें पड़े किन्हीं भी दूसरे लोगोंका। इस सम्बन्धमें एक बहु-प्रचारित पुस्तिकाके[१] निम्नलिखित अंश उद्धृत कर देना ज्यादा अच्छा होगा:
इस उपनिवेशमें मैं जिससे भी मिला हूँ, हरएकने भारतीयोंकी असत्यवादिताकी बात कही है। कुछ हदतक में इस आरोपको स्वीकार भी करता हूँ। परन्तु अगर मैं इस आपत्तिका उत्तर यह कहकर दूं कि दूसरे वर्ग भी, खास तौरसे इन अभागे भारतीयोंकी हालतोंमें रखे जानेपर, ज्यादा अच्छे नहीं ठहरते, तो यह मेरे लिए बड़े अल्प सन्तोषकी बात होगी। फिर भी, अन्देशा है कि मुझे उस तरहके तर्कका सहारा लेना ही होगा। मैं चाहूँगा तो बहुत कि वे ऐसे न हों, परन्तु यह सिद्ध करनेमें अपनी पूरी असमर्थता कबूल करता हूँ कि वे मनुष्य नहीं, मनुष्यसे कुछ ज्यादा हैं। वे भुखमरीकी मजदूरीपर नेटाल आये हैं (मेरा मतलब सिर्फ गिरमिटिया भारतीयोंसे है)। वे अपने-आपको एक विचित्र स्थिति और प्रतिकूल वातावरणमें पाते हैं। जिस क्षण वे भारतसे रवाना होते हैं, उसी क्षणसे, अगर वे उपनिवेशमें बस जाते हैं तो, सारे जीवन उन्हें बिना किसी नैतिक शिक्षाके रहना पड़ता है। हिन्दू हों या मुसलमान, उन्हें नाम-लायक कोई नैतिक या धार्मिक शिक्षा बिलकुल ही नहीं दी जाती। और वे खुद इतने पढ़े-लिखे होते नहीं कि दूसरोंकी सहायताके बिना स्वयं शिक्षा प्राप्त कर लें। ऐसी हालतमें वे झूठ बोलनेके छोटेसे-छोटे प्रलोभनके भी शिकार हो सकते हैं। होते-होते उन्हें झूठ बोलनेकी लत पड़ जाती है, बीमारी हो जाती है। वे बिना किसी कारणके, बिना किसी फायदेकी आशाके, झूठ बोलने लगते हैं। सचमुच तो वे जानते ही नहीं कि हम क्या कर रहे हैं। वे जिन्दगीको एक ऐसी मंजिलपर पहुँच जाते हैं, जहाँ कि उनकी नैतिक शक्तियाँ उपेक्षाके कारण बिलकुल मन्द पड़ जाती हैं...तब क्या उन लोगोंपर दया करनेकी अपेक्षा
- ↑ "खुली चिट्ठी" दिसम्बर १८९४; देखिए खण्ड १, पृष्ठ १४२-६६ ।