सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/३९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६१
भारतीयोंकी सत्यपरायणता

उनका तिरस्कार करना उचित है ? क्या उनके साथ दयाके अयोग्य बदमाशों जैसा बरताव किया जायेगा या उन्हें ऐसा असहाय प्राणी माना जायेगा, जिन्हें हमदर्दीकी बुरी तरहसे जरूरत है ? क्या कोई ऐसा वर्ग देखनेमें आता है, जो इसी तरह की परिस्थितियों में उनके समान ही व्यवहार नहीं करेगा ?[]

जहाँतक भारतीय व्यापारियोंका सम्बन्ध है, हम दावेके साथ कहते हैं कि उनमें किसी भी दूसरी जातिके किसी भी व्यापारीसे ज्यादा झूठ बोलनेकी वृत्ति नहीं है । शायद दूसरे ज्यादातर लोगोंसे उनमें झूठ बोलनेकी लत कम ही है। कारण यह है कि वे उतनी विलासी आदतोंके लोग नहीं हैं, जितने कि उनके अधिक जटिल सभ्यतावाले प्रतिस्पर्धी । इसलिए "पेढ़ीके हितके लिए" झूठ बोलनेकी प्रेरणा उन्हें इतनी ज्यादा नहीं होती ।

और यहाँ हम बेधड़क कह देना चाहते हैं कि कम संस्कारी अंग्रेजोंकी एक दुर्भाग्यपूर्ण विशेषता यह है कि जब वे किसी ऐसी वस्तुके सम्पर्क में आते हैं, जो उनके लिए अपरिचित हो और जिसके वे अभ्यस्त न हों, तब वे उसकी प्रकृतिकी छानबीन नहीं करते । परन्तु उसे जीवनके प्रति अपने दृष्टिकोण से भिन्न चीज मानकर ठुकरा देते हैं और जितनी भी बुराइयोंकी कल्पना कर सकते हैं, उन सबको उसमें आरोपित कर देते हैं ।

हम समझते हैं कि इस प्रसंगमें यह जान लेना फायदेमन्द होगा कि कुछ प्रतिष्ठित अंग्रेजोंने भारतीयोंकी सत्यपरायणताके बारेमें सार्वजनिक रूपसे क्या कहा है।

भारतीय जीवनका अच्छा-खासा अनुभव रखने वाले एक अंग्रेज सर जॉर्ज बर्डवुडका कथन है :

नैतिक सत्यनिष्ठा बम्बईके (ऊँचे) सेठिया वर्गका उतना ही बड़ा गुण है, जितना कि स्वयं ट्यूटॉनिक[] जातिका । संक्षेपमें, भारतके लोग किसी असली अर्थमें हमसे ओछे नहीं हैं। कुछ झूठे -- हमारे लिए ही झूठे - मापदण्डोंसे, जिनपर विश्वास करनेका हम ढोंग करते हैं, नापी जानेवाली बातों में तो वे हमसे आगे ही हैं ।[]

श्री पिनकॉट कहते हैं :

तमाम सामाजिक बातों में अंग्रेज लोग हिन्दुओंके गुरु बननेके प्रयत्न करनेकी अपेक्षा उनके चरणों के पास बैठने और शिष्य बनकर उनसे शिक्षा लेनेके ही बहुत अधिक योग्य हैं ।[]

और सत्य निस्सन्देह एक सामाजिक सद्गुण है ।

एलफिन्स्टनने कहा है :

हिन्दुओं में किसी समुदायके लोग इतने चरित्रहीन नहीं हैं, जितने कि हमारे अपने बड़े-बड़े नगरोंके निकृष्ट लोग ।

सर जॉन मालकॉमका कथन है :

मैंने देखा है कि जहाँ भारतीय हमारी भाषा जानते थे, या जहाँ उन्हें किसी सुविज्ञ और विश्वस्त व्यक्तिके द्वारा शान्तिपूर्वक बात समझा दी गई, वहाँ नतीजेसे

  1. देखिए “खुली चिट्ठी " दिसम्बर १८९४; खण्ड १, पृष्ठ १६०-६१ ।
  2. जर्मन, स्कँडीनेवियन, डच, ऐंग्लो-सेक्सन आदि ।
  3. देखिए “खुली चिठ्ठी" दिसम्बर १८९४९ खण्ड १, पृष्ठ १५८ ।
  4. देखिए " खुली चिट्ठी" दिसम्बर १८९४९ खण्ड १, पृष्ठ १५९ ।