से ध्यान में रखनेकी आवश्यकता है। इस प्रकारकी कांग्रेस स्थापित की जानी चाहिए, ऐसी लॉर्ड डफरिनकी मान्यता थी। उन्होंने इस सम्बन्धमें अपने विचार श्री ह्यूमको बताये और श्री ह्यूमको यह बात बहुत पसन्द आई। इसलिए उन्होंने इसपर भारतके प्रसिद्ध पुरुषोंसे परामर्श किया और फलस्वरूप यह कांग्रेस कायम की गई। यह बात याद रखना आवश्यक है, क्योंकि कांग्रेसके शत्रु जो अनेक आरोप लगाते हैं उनका निवारण करने में यह काम देगी। कांग्रेसकी स्थापना होनेपर विशेषतः तानाशाह, संकुचित दृष्टि और उद्दण्ड अधिकारी अत्यन्त आतंकित हो गये । क्योंकि वे यह ताड़ गये थे कि कांग्रेस दिनों-दिन जोर पकड़ती जायेगी और लोग उसे माता मानकर, उसके अधिवेशनों में निडरतासे अपनी भावनाएँ प्रकट करेंगे। और इस कारण तानाशाही और उद्दण्डता बे-रोक-टोक न चल पायेगी । वे घबरा उठे, और अपने समाचारपत्रोंके द्वारा अपना रोष प्रकट करने लगे तथा राज्यके प्रति वफादार कांग्रेसपर यह मानकर अगणित, अनुचित एवं अशोभनीय आरोप लगाने लगे कि ऐसा करनेसे कांग्रेस देरतक नहीं टिक सकेगी। ये अधिकारी और उनके अखबार नेताओं को पानी पी-पीकर कोसने लगे और यह बतानेका प्रयत्न करने लगे कि यह संस्था राज-द्रोही है, और यदि सरकार इसे कुचल न देगी तो राजका नुकसान होगा। लॉर्ड रिपनके[१] समयमें दलीलोंका जो वाग्युद्ध हुआ उससे उनकी आँखें खुल गईं और यह साबित हो गया कि भारतीय अपना हित समझ सकते हैं, यही नहीं, अपने लिए प्रामाणिक योजना तैयार कर सकते हैं। कांग्रेसकी स्थापना होनेपर ये विचार पूरी तेजीसे याद आये और सरकारपर भी इसका दबाव पड़ने लगा । दूसरी ओर कांग्रेस में आपसी फूट पैदा करनेके इरादेसे हिन्दुओं और मुसलमानोंकी बात होने लगी और हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच भी बंगाली, पंजाबी और मद्रासी आदिकी फच्चरें लगाकर फूट डालनेकी भरसक कोशिशें तेजीसे की जाने लगीं। थोड़े ही समयमें इन विघ्नसन्तोषियोंने इतनी चीख-पुकार मचाई कि लॉर्ड डफरिन जैसे धीर-गम्भीर राजनयिकपर भी उसका प्रभाव पड़ गया। और, उन्होंने कलकत्तेसे विदा होनेसे पूर्व सेंट एन्ड्रके भोजमें भाषण देते हुए कांग्रेसके सम्बन्ध में अपना दुर्भाव प्रकट किया जिस पर आंग्ल-भारतीयने तालियाँ बजाकर उन्हें सम्मानित किया। अलबत्ता स्वर्गीय श्री ब्रेडलॉने[२] जब इस सम्बन्धमें अपने विचार व्यक्त किये तब लॉर्ड डफरिनने लिखकर उनका समाधान करना उचित समझा। परन्तु यह बात दूसरी है । हमें तो फिलहाल यही देखना है कि ऐसी-ऐसी मुसीबतोंके होते हुए भी हमारे नेता हिम्मत नहीं हारे, बल्कि मनको स्थिर रखकर अपना कर्त्तव्य पूरा करते चले गये । परिणामतः आज उन्होंने यह समय ला दिया है कि कांग्रेसकी महत्ता उसके शत्रुओंको भी स्वीकार करनी पड़ती है और घमंडी अधिकारियोंको भी उसकी सूचनाओंपर ध्यान देना पड़ता है।
[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १४-१-१९०५
- ↑ लॉर्ड रिपन, भारतके वाइसराय, १८८०-८४ और उपनिवेश-मंत्री १८९२-९५ ।
- ↑ चार्ल्स ब्रैडलॉ (१८३३-१८९१), एक सुविख्यात लोक-सेवक, ब्रिटिश संसद के सदस्य और कट्टर नास्तिक । भारतीय मामलों में ये बहुत दिलचस्पी रखते थे और इन्होंने १८८९ में भारतीय विधान परिषदोंके सुधार के लिए एक विधेयकका मसविदा बनाया था । ये १८८९ में कांग्रेसके तृत्तीय अधिवेशन (बम्बई) में शामिल हुए थे I जब गांधीजी इंग्लैंडमें पढ़ रहे थे उन दिनों वे श्री मैडलॉफी अन्त्येष्टिमें सम्मिलित हुये थे ।