हमने जिस अवान्तर प्रश्नका उल्लेख किया है वह था, वेस्ट स्ट्रीटके मकान के बारेमें परवाना अधिकारीके परवाना न देनेके निर्णयके विरुद्ध नगर परिषद में श्री हुंडामलकी अपील । श्री बर्नके शानदार ऐतराजके बावजूद नगर परिषदने परवाना अधिकारीका परवाना न देनेका निर्णय बहाल रखा है और यद्यपि उसने परवाना अधिकारीके दिये हुए कारणसे सार्वजनिक रूपमें असहमति प्रकट की है, फिर भी उसने उस अस्वीकृत कारणके बदले अपना निजी कारण कोई नहीं दिया है ।
परन्तु इस सुनवाईके सिलसिले में एक और आश्चर्यजनक प्रश्न उठता है । महापौरने यह असाधारण मत प्रकट किया है कि परवाना अधिकारीका विवेक प्रयोगका अधिकार निरंकुश है, ऐसा नहीं कि कानूनी मर्यादाओंके भीतर ही अमलमें लाया जाये, जैसी कि श्री हुंडामलके वकीलने दलील दी है। इस फैसलेके कानूनी पहलूकी समीक्षा करना हमारे क्षेत्रके अन्दर नहीं है। हम इसे सिर्फ दर्ज कर लेते हैं। मालूम पड़ता है कि यह संघर्ष अति भीषण होगा । दरअसल, भारतीय समाजको या तो लड़ना होगा या मृत्युके मुखमें जाना पड़ेगा। अब यह सिर्फ श्री हुंडामलके सर्वनाशका प्रश्न नहीं रहा है। ऐसा परिणाम शोचनीय तो होगा, परन्तु अपेक्षाकृत महत्त्वहीन होगा। इस मामलेका सम्बन्ध एक व्यक्तिके विशेषाधिकारोंके संरक्षणकी अपेक्षा अधिक बड़ी चीजसे है। सारे भारतीय व्यापारी समाजके सम्मुख विनाशका खतरा आ उपस्थित हुआ है। श्री हुंडामलके साथ जो कुछ हुआ है वह प्रत्येक अन्य भारतीय व्यापारीके साथ हो सकता है । जबतक कानूनकी यह नई व्याख्या कायम है तबतक किसी भी भारतीयके व्यापारका मूल्य उसकी एक दिनकी आमदनीके बराबर भी नहीं है ।
सर्वोच्च न्यायालयके निर्णयका शुद्ध परिणाम यह है : सभी जानते हैं कि गोरे लोग भारतीय व्यापारियोंको एक-एक करके मिटा देना चाहते हैं । फैसला यह दिया गया है कि परवाने केवल खास मकानों के लिए दिये जाते हैं और वे बदले नहीं जा सकते। फलतः मकान मालिक अपने किरायेदारसे मनमाना किराया वसूल कर सकता है, और व्यापारी बुरी तरहसे असहाय रहता है । वह या तो अनिवार्य रूपसे मकान मालिकके हाथों नष्ट हो जाये, या दूसरा मकान खोजे । अगर वह दूसरा उपाय पसन्द करता है तो उसका परवाना रद हो जाता है और उसका व्यापार करनेका विशेषाधिकार छिन जाता है। वह फिर परवाना नहीं ले सकता, जो तब नया परवाना माना जायेगा। क्योंकि, ठीक जैसे एशियाई लोगोंको वेस्ट स्ट्रीटमें व्यापार करनेके नये परवाने देना (गैर-सरकारी तौरपर) अनावश्यक माना जा सकता है, उसी तरह शहरके हरएक व्यापारी मुहल्ले में भी उसके लिए रोक हो सकती है। और वह दीपककी लौमें पतिगेके समान पूर्णतः नष्ट हो जायेगा ।
यह विषय व्यक्तिगत रूपसे विचार करनेका नहीं, बल्कि दक्षिण आफ्रिका-भरके सम्पूर्ण भारतीय समाजके मिलकर विचार करनेका है । युद्धका क्षेत्र अस्थायी तौरपर ट्रान्सवालसे हटकर नेटाल चला गया है। जो बात डर्बनमें लागू होती है वह सारे उपनिवेशमें लागू होती है और आज जो नेटालमें लागू है वह, असम्भव नहीं, सारे दक्षिण आफ्रिकामें लागू हो जाये । बुरे उदाहरणका अनुसरण शीघ्रतासे किया जाता है ।
[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ११-२-१९०५