सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/४११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

२९६. क्या यह अंग्रेजियत है ?

पिछले अंकोंमें हमने पाँचेफस्ट्रमके कारनामोंकी चर्चाको काफी जगह दी है। ऐसा हमने पाँचेफ्स्ट्रूमके विचार केन्द्र होनेके नाते उतना नहीं किया जितना इस नाते किया है कि हम उस नगरेको दक्षिण आफ्रिकामें भारतीय समाजके प्रति जो दुर्भावनापूर्ण रुख है उसका बहुत-कुछ नमूना मानते हैं । जब "स्वेच्छा न्याय” (लिंच-लॉ) के नामसे विदित अपवित्र विधानके अन्त- र्गत कानूनको हाथमें लेकर अमेरिकाकी जनताके कुछ दल अभागे हब्शियोंकी बलि चढ़ा देते हैं तब अंग्रेज उसके प्रति निरपेक्ष घृणाका भाव प्रकट किया करते हैं । प्रत्यक्ष है कि पॉचेफस्ट्रुम इसी तरह ब्रिटिश सभ्यताकी सीमारेखाका उल्लंघन करनेके लिए प्रयत्नशील है; क्योंकि नगरमें एक मसजिदके निर्माणके विषयमें हमने यह पढ़ा है : " यदि भारतीयोंने जनताकी भावनाओंकी उपेक्षा करना जारी रखा तो सम्भवतः इस मामलेको लेकर बखेड़ा खड़ा हो जायेगा; जैसा कि लोग इस बारेमें उग्रताके साथ सम्मतियाँ प्रकट कर चुके हैं। न्यायोचित क्या है, यह एक बात है; और किस बातपर क्रोध आ जायेगा, यह दूसरी बात है । ये शब्द हमारे सहयोगी पॉचेफस्ट्रम बजटके हैं। इस वक्तव्यके दो अर्थ नहीं हो सकते। इसका सीधा अर्थ जहाँतक कानून जानेकी आज्ञा देता है उससे आगे बढ़नेकी प्रेरणा देना है । हम खयाल करते हैं कि यह मान लिया गया है कि पॉचेफस्ट्रम नगर-परिषदको मसजिदका निर्माण रोकनेका कानूनी अधिकार नहीं है। तब क्या हमारा सहयोगी कानूनके अलावा दूसरे तरीकोंसे मसजिदका निर्माण रोकनेकी धृष्टतापूर्ण सलाह देना चाहता है ? यह महान् ब्रिटिश जातिकी न्यायनिष्ठाकी परम्पराके अनुरूप नहीं है । किन्तु हम निराश होकर ऐसा कुछ सोच रहे हैं कि कहीं दक्षिण आफ्रीकियोंने ब्रिटिश राष्ट्रीय सम्मानके मूलभूत सिद्धान्तोंको तिलांजलि तो नहीं दे दी ?

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ११-२-१९०५

२९७. पीटर्सबर्ग के व्यापारी

हम अपने पीटर्सबर्ग के संवाददातासे प्राप्त एक समाचार अन्य स्तम्भमें प्रकाशित कर रहे हैं। उसके साथ जल्दी दूकानें बन्द करने के सम्बन्धमें मालिक-संघ और स्थानिक ब्रिटिश भारतीय- समिति बीचका पत्रव्यवहार भी है। इन कागजातको पढ़ने से साफ मालूम हो जायेगा कि इस विषय में पीटर्सबर्ग में बड़ी तीव्र भावना व्याप्त है। हमने बार-बार बताया कि एशियाइयों और यूरोपीयोंके बीच, खास तौरसे व्यापारिक मामलोंमें, ईर्ष्या-द्वेषपूर्ण भेद-भाव किया जाता है । हमने बार-बार यह भी बताया है कि गोरे लोग भारतीय समाजपर किस तरह उत्तर- दायित्व और दण्डका हिस्सा तो लादनेके लिए प्रयत्नशील रहे हैं, परन्तु उन्हें कोई विशेषाधिकार देनेसे सावधानीके साथ बचे हैं । अब, संयोगसे, मानवी स्वभाव कुछ ऐसा बना है कि वंचित लोग विशेषाधिकारोंसे वंचन और समान उत्तरदायित्व या भार वहनको बराबर नहीं मानते । और ऐसी स्थितिमें, अगर भारतीय समाजने उन गोरे निवासियों द्वारा, जो उन्हें समान अवसर देनेसे हठपूर्वक इनकार करते हैं, लादे हुए उत्तरदायित्वको स्वीकार करना बार-बार अस्वीकार