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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

किया है, तो इसपर आश्चर्य नहीं किया जा सकता। सच तो यह है कि, पीटर्सबर्गके भारतीय व्यापारियोंने तबतक बराबर अपने गोरे व्यापारी भाइयोंकी इच्छाओंकी पूर्ति की है, जबतक कि उन्होंने उनपर विशेष निर्योग्यताएँ नहीं लादीं । परन्तु जब गोरे व्यापारियोंने उनका बहि- ष्कार करने और उनको शहरसे निकालनेके तरीके शुरू किये तब भारतीय व्यापारी यह महसूस करने लगे कि उन्हें अपने-आपको शेष समाजसे पृथक् समझना चाहिए। इसका परिणाम उस पत्रव्यवहारमें मिलेगा, जिसका उल्लेख हमने किया है। अगर गोरे व्यापारी चाहते हैं कि भारतीय व्यापारी उनकी स्थापित की हुई रीति-नीतिका पालन करें तो उन्हें अपना व्यवहारका तरीका बदलना होगा। दोनों ही ओरसे आदान-प्रदान होना आवश्यक है।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ११-२-१९०५

२९८. रंगदार लोगोंका मताधिकार

इस अंक के एक अन्य स्तम्भ में ४ तारीखके जोहानिसबर्ग स्टारमें प्रकाशित एक लम्बी खबर के कुछ अंश दिये जा रहे हैं । यह खबर ट्रान्सवालमें हुई रंगदार लोगोंकी एक सभाके बारेमें है । इस सभा में एक प्रस्ताव पेश किया गया था, जिसमें सम्राट सरकारसे प्रार्थना की गई थी कि जो संविधान अब बनाया जा रहा है, उसका निर्माण करते समय ट्रान्सवालमें सम्राटकी रंगदार प्रजाके न्यायपूर्ण अधिकारों और विशेषाधिकारोंको न तो भुलाया जाये और न उनमें काट- छाँट की जाये । हम सिर्फ इतना कह सकते हैं कि राजनीतिक विस्मरणसे आत्मरक्षाके प्रयत्नमें रंगदार समाजके साथ हमारी पूरी-पूरी सहानुभूति है । एक समय था जब कि स्वर्गीय श्री रोड्सने अपना यह प्रसिद्ध मत प्रकट किया था कि जैम्बेसीके दक्षिणमें प्रत्येक सभ्य व्यक्तिको मताधिकार प्रदान किया जाना चाहिए। ऐसा मालूम पड़ता है कि वह आदर्श, इधर कुछ दिनोंसे, शीघ्रताके साथ बदनाम होता जा रहा है । आजकल आदर्श सम्मुख रखनेका दोषी बनना रिवाजके विरुद्ध है, और कोई रखे तो उसके अनुसार आचरणकी बेशर्मी दिखाना अपराध है । हमने अभी हाल में ही देखा है कि किस प्रकार वतनी आयोगने एक सरकारी रिपोर्ट निकाली है और यह सिफारिश की है कि जिन रंगदार लोगोंको मताधिकार दिया जा चुका है उनका वह अधिकार केवल राज्यके चुनावोंके लिए कायम रहना चाहिए; परन्तु जब संघीय संसदके चुनावोंका मौका आये तब वह उनसे वापस ले लिया जाना चाहिए। इसके स्पष्ट अन्यायपर जोर देनेकी जरूरत नहीं है । यह रंगदार लोगोंके प्रति दक्षिण आफ्रिकी गोरे निवासियों द्वारा इख्तियार किये हुए आम रुख से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। दुर्भाग्यवश रंग-विद्वेष के मामलोंमें लोगोंसे तर्कके द्वारा सत्य स्वीकार करवाना लगभग असम्भव है । जहाँ अन्ध पूर्वग्रहका शासन होता है वहाँ न्याय नहीं होता । हमें भय है कि ट्रान्सवालके रंगदार समाजको अपने उन अधिकारोंको, जिन्हें हम न्यायो- चित समझते हैं, स्वीकार करानेके लिए अभी बहुत दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। हमें भरोसा है कि वे इस अविचारपूर्ण व्यवहारके प्रति अपना विरोध और अपनी मांगोंमें निहित न्याय्यता पर आग्रह जारी रखेंगे ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ११-२-१९०५